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Friday, 15 May 2015

कलम से..: खूबसूरत अंजलि उर्फ़ बदसूरत लड़की की कहानी - सुधीर ...

कलम से..: खूबसूरत अंजलि उर्फ़ बदसूरत लड़की की कहानी - सुधीर ...: बहुत खूबसूरत थी वो लड़कपन में।       लड़कपन में तो सभी खूबसूरत होते है।   क्या लड़के , क्या लड़कियां।   पर वो कुछ ज्यादा...

Sunday, 15 September 2013

सुधीर मौर्य की कहानी : सुबह की कालिमा

अंकिता आज थोड़ा उलझन में है। वो जल्द से जल्द अपने रूम पर पहुँच जाना चाहती है। न जाने क्यूँ उसे लग रहा है, ऑटो काफी धीमे चल रहा है। वो ऑटो ड्राइवर को तेज़ चलाने के लिए बोलना चाहती है, पर कुछ सोच कर चुप रह जाती है। आज उसे निर्णय लेना है। जिसके लिए उसे शांति चाहिए, शांत जगह। इस समय उसे अपने कमरे से ज्यादा कोई और जगह मुनासिब नहीं लग रही है। पर आज न जाने क्यूँ यह रास्ता उसे कुछ ज्यादा ही लम्बा लग रहा है। वैसे तो वो रोज़ ही इन रास्तों से गुजरती है। यूनिवर्सिटी से उसके घर का रास्ता।

चाय का एक कप लेकर वो विंडो का पर्दा खिसका कर खड़ी हो जाती है। चाय का एक घूंट ले कर वो विंडो से नीचे नज़र दौड़ाती है। इस विंडो से वो एक पतली काली कोल तार की सड़क देख सकती है। रोज़ ही देखती है। इसमें अधिकतर पैदल राहगीर ही गुजरते है। कुछ दुपहिया वाहन भी। कभी कभार इक्का दुक्का लाइट मोटर व्हीकल भी। बड़े वहां गुजर नहीं सकते। सड़क के दोनों मुहाने पर जड़े वाहनों का प्रवेश निषेध का साइन बोर्ड भी लगा है।

वो चाय का वापस घूंट लेती है। इस वक़्त सड़क लगभग सून-सान है। इक्का-दुक्का लोग गुजर रहे है। तभी उसकी नज़र आ रहे तीन लोगों पर पड़ती है। एक लड़की, दो लड़के। अंकिता उन्हें तब तक देखती रहती है, जब तक वे उसकी खिड़की के नीचे से गुजर कर सड़क के दूसरे मुहाने से टर्न लेकर दिखना बंद नहीं हो पाते।

अंकिता उन तीनों को आखिरी बिंदु तक देखती है। उनकी परछाई के छिप जाने तक। उसके होठों पर मुस्कान तैर जाती है, कप चाय से खली हो चूका है, अंकिता किचन में जा कर खली कप वाशबेसिन में रखती है। वापस आ कर बीएड पर लेट जाती है। सर के नीचे तकिया रख कर आँखे मीच लेती है।

- आज उसे निर्णय लेना है।
- किसी और के लिए नहीं, खुद के लिए।
उसकी आँखों में एक के बाद एक, दो आते है।

- पहला चित्र है, समीर का। जो इसी गली के मुहाने पर बसे एक घर में किराये पर रहता है। पिछले छह-सात महीने से वो उसे जानती है। समीर, स्थानीय स्तर पर नाट्य संस्था से जुड़ा है। नुक्कड़ नाटक का मंचन करता है। खुद ही लिखता भी है और निर्देशित भी। पर अब तक उसको कोई विशेष सफलता नहीं मिली है।

अंकिता एक नुक्कड़ नाटक देखने के समय समीर से मिली थी।


- पहली मुलाकात
- पहली मुलाक़ात में ही समीर, अंकिता को अलमस्त और खिल्दुंड नज़र आता है। हमेशा हँसता चेहरा, हमेशा मजाक के मूड में। पहली मुलाकात में ही समीर अंकिता से यू मिलता है ज्यों पहले कई बार मिल चूका हो।

उसका बेझिझक अंकिता को यार कह कर बुलाना, टाइम जानने के लिए बिना उसको पूछे, उसकी कलाई पकड़ कर घड़ी से टाइम देख लेना।सब कुछ इतनी आसानी से समीर ने किया मानो वो काफी पुराने दोस्त हो।

उसी दिन समीर उसे बाइक पर उसके काम तक छोड़ता है। अंकिता जब बाइक से उतर कर जब उसे थैंक्स बोलना चाहती है। तो वह हंसने लगता है दीवानावार, काफी देर बाद वो खुद को संयत करके ऊँगली से इशारा करके गली के दूसरे छोर को दिखा कर बोलता है, वहां है मेरा रूम। इतना करीब रह कर भी इतनी देर से मुलाकात, अंकिता भी हंस पड़ती है।

फिर वो अक्सर मिलने लगते है। दोस्ती प्रगाढ़ हो जाती है। पर उनके बीच प्यार जैसा कुछ नहीं। अंकिता ने कभी उसकी अनुमति भी नहीं दी।

आज सुबह समीर उसे प्रपोज करता है। जब वो यूनिवर्सिटी के लिए निकलती है, तो गली के दूसरे छोर पर समीर अपनी बाइक पर बैठा हुआ है, अंकिता को देख कर मुस्कराता है।

अंकिता उसकी बाइक पर बैठ जाती है। लगभग रोज़ का नियम है। समीर, अंकिता को चौराहे तक छोड़ता है, जहाँ से उसे यूनिवर्सिटी जाने के लिए ऑटो मिल जाता है। और समीर वहां से नाट्य मंडली की तरफ चला जाता है।

आज अंकिता जब बाइक से उतर कर बाय करके जाने लगी, तो दो मिनट प्लीज बोल कर समीर उसे रोक लेता है। अंकिता उस के पास आकर खड़ी हो जाती है।

बाइक से उतर कर समीर, अंकिता के करीब आता है और होंठो पर मुस्कान लाकर बिखेर कर कहता है- यार रोज़ खाना-नास्ता बनाने में और बर्तन धुलने में काफी टाइम निकल जाता है। इस वजह से मेरा काम में पूरा ध्यान नहीं लगता है।

- अंकिता चुप रहती है, उसे समीर की बात का कोई जवाब नहीं सूझता है।

- समीर आगे कहता है- मैं सोचता हूँ, ये काम तुम्हारे हवाले कर दूँ।

- अंकिता चौक पड़ती है- 'व्हाट' मैं लखनऊ में क्या आयागिरी करने आई हूँ, अरे मैं यूनिवर्सिटी में जर्नलिज्म की स्टूडेंट हूँ। आप ने ये कैसे सोच लिया।

खिलखिला कर हंस पड़ता है समीर, कई पलों तक निश्छल हंसी। फिर सांसे संयत करके कहता है- अरे समझी नहीं आप- अरे मैं ये काम आपको आया समझकर नहीं बल्कि अपनी बीवी की हैसियत से देना चाहता हूँ।

''मुझसे शादी करोगी'' - अंकिता जी।

- अचम्भित रह गयी थी अंकिता, समीर के प्रपोज के इस अंदाज पर। प्यार के रस्ते को पार करके सीधे शादी। चुप रह गयी वो। आँखे नीचे करके वहां से जाने लगी तो पीछे से समीर बोला- जवाब नहीं दिया अपने।

- वो रुकी नहीं चलते-चलते बोली इस टॉपिक पर फिर कभी बात करेंगे, अभी क्लास को देर हो रही है।
- अंकिता क्लास रूम में आ के बैठ गयी। उसने कभी समीर को इस नज़र से नहीं देखा, न कभी सोचा। पर उसके प्रपोज का ये अंदाज उसे गुदगुदा गया।

अंकिता उठती है, वापस अपने लिए चाय बनाती है। चाय के हल्के-हल्के सिप लेते हुए उसकी आँखों में दूसरा चित्र आता है।
यूनिवर्सिटी में उसका एक साल सीनियर- 'अतुल' उसके गीतों और कविताओं की साडी यूनिवर्सिटी दीवानी है। सांवले और सौम्य अतुल को इस वर्ष उभरते हुए युवा कवि के सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।

उसके लेखन से अंकिता भी प्रभावित है और शायद उसकी तरफ आकर्षित भी है। कई बात उन दोनों की मुलाकात यूनिवर्सिटी के एकांत में होती है, और उस वक़्त अतुल, अंकिता को अपनी प्रेम कवितायें सुनाता है। जो अंकिता के दिल में गुदगुदी पैदा करती है।

आज लंच टाइम के बाद जब वो लाइब्रेरी में बैठी थी, तभी वहां अतुल आ जाता है। और कई कवितायें सुनाने के बाद झिझकते-शर्माते अंकिता को प्रपोज करता है।

- एक ही दिन में अंकिता को दो लोग प्रपोज करते है, जिन्हें वो आजतक अपना मित्र मानती आई है। पर उनमें से न जाने क्यूँ उसे अतुल ज्यादा भाता है। सौम्य और शांत। देश का सबसे ज्यादा उभरता हुआ कवि। जब वो बिस्तर पर लेट कर अतुल और समीर की तुलना करती है, तो खुद को अतुल के ज्यादा करीब पाती है। उसका भविष्य यकीनन अतुल के साथ सुरक्षित है, क्यूँ की वो एक स्थापित साहित्यकार हो चूका है। जबकि समीर एक स्ट्रगलर है और उसके खुद के भविष्य का ठिकाना नहीं है। सो वो फैसला करती है,अतुल के प्रपोज को स्वीकार करने का। अंकिता बिस्तर पर करवट लेती है वैसे ही उसके दीमाग में विचार भी करवट लेते है।

अंकिता एक बार उन दोनों को करीब से जानना चाहती है, कोई अंतिम फैसला करने से पहले। परसों उसका बर्थडे है। उस दिन वो अपने दोनों प्रेमियों में से किसी एक से मिलने का प्लान करती है।

पर इस बार वो समीर को प्राथमिकता देती है। क्यूँ की उसने उसे पहले प्रपोज किया है। अंकिता फ़ोन उठती है और कांपते हाथों से समीर का नंबर डायल करती है।

- हैल्लो ! समीर बोलता है, अरे इतनी रात को अंकिता क्या कुछ प्रोब्लम तो नहीं हुई।

- नहीं-नहीं समीर सब ठीक है, बस मैंने आपको इनवाइट् करने के लिए फ़ोन किया था। और फिर अंकिता उसे अपने बर्थ डे के लिए आमंत्रित करती है। जिसे समीर हँसते हुए कबूल कर लेता है।

- अंकिता मोबाइल डिसकनेक्ट करने से पहले बोलिती है तो फिर ठीक शार्प ग्यारह बजे आप पहुँच रहे है।
- रात के ग्यारह बजे न, समीर कन्फर्म करता है।

- हाँ यार क्यूँ की मैं रात ग्यारह बजे ही पैदा हुई थी, अंकिता थोड़ी शोखी से बोलती है।

उस दिन समीर, अंकिता को फ़ोन करता है दोपहर को, पूछता है- बर्थडे की सब तैयारी हो गयी और क्या सब लोग इनवाइट् हो गए है।

- हाँ सब तैयारी हो गयी है- अंकिता बोलती है पर मेरे इस बर्थडे पर सिर्फ आप इनवाइट् है।
- सिर्फ मैं - समीर थोडा चौकता है।

- हाँ, अंकिता इतना ही बोल पाती है, की नेटवर्क प्रोब्लम की वजह से फ़ोन कट जाता है। थोड़ी देर ट्राई करने के बाद अंकिता अन्य कामों में व्यस्त हो जाती है।

आज अंकिता ने टी-शर्ट और स्कर्ट पहनी है, घुटने के उपर स्कर्ट। उसने एक दिन नाटक में समीर की नायिका को ऐसी ही ड्रेस में देखा था। वह आज समीर को अच्छी तरह से समझना चाहती है। टेबल पर उसने केक सजा दिया है, वहां सिर्फ दो चेहरे है। अंकिता की गोरी कलाई में बंधी घडी की सुइयां अब ग्यारह बजाना चाहती है।

अंकिता, समीर को याद दिलाने की गर्ज से उसे फ़ोन करती है, उधर से समीर कहता है, बस डियर पहुँच रहा हूँ, थोडा ट्राफिक में हूँ।

घडी की सुइयां ग्यारह क्रॉस कर चुकी है। समीर का फ़ोन नॉट रिचेबल है। अंकिता बेचैनी से टहलती है फिर बैठ जाती है।
अंकिता की आँख खुलती है, वो टेबल पर ही सर रख कर सो गयी थी। घडी पर नज़र डालती है तो तीन बज चुका है। समीर का फ़ोन अब भी नॉट रिचेबल है। अंकिता के चेहरे पर गुस्सा झलक पड़ता है। वो पैर पटक कर उठती है। और तेज़ क़दमों से टहलने लगती है। उसे समीर की इस अदा पर नफरत होने लगती है, और वो गुस्से में अतुल का नंबर डायल करती है।

केक खिलने के वक़्त अतुल के हाथ से केक फिसल कर अंकिता की शर्ट पर गिर जाता है। अंकिता अभी आती हूँ, कह कर वाश रूम की तरफ चली जाती है।
टी-शर्ट उतार कर वो उस पर लगे केक को साफ़ कर रही है, तभी वहां अतुल आ जाता है। सी एफ एल की रौशनी में अंकिता की नंगी पीठ और कंधे दूध की तरह चमक रहे है।

अतुल आगे बढ़ कर अपने होंठ अंकिता के कंधे पर रख देता है। अंकिता चिहुंक कर पलटती है तो बेलिबास उरोज अतुल के सीने में दुबक जाते है। अतुल उसे भींचते हुए आई लव यू अंकिता कहता है।

- आई लव यू टू - अंकिता के होंठो से सिसकारी के साथ निकलता है।

अतुल, अंकिता को गोद में उठा कर उसे बिस्तर पर लाकर लिटा देता है। इस वक़्त उसकी आखें बंद है और सांसे तेज़ है। वो अतुल को अपने बगल में महसूस करती है। कोई विरोध नहीं। अतुल के हाथों की हरकतों के आगे वह समर्पित हो जाती है। और अपने कौमार्य को उसके हवाले कर देती है।

किसी कवि सम्मलेन में जाने के लिए अतुल सवेरे छ: बजे अंकिता के रूम से निकलता है, दरवाज़े पर वो पानी नयी-नवेली प्रियतमा के होंठो को आधुनिक किस करता है।

अतुल को विदा करके, अंकिता वापस निढाल शरीर के साथ बिस्तर पर सो जाती है।

कई बार डोर बेल बजने के बाद उसकी आँख खुलती है। कोई बदस्तूर डोर बेल बजा रहा है। अंकिता झुंझुला कर उठती है। डोर खोलती है तो सामने समीर है। हाथ में फूलोंके गुलदस्ते के साथ।

अंकिता तंज लहजे में कहती है, अब क्या लेने आये हो, मेरा बर्थडे रात के ग्यारह बजे था, दिन के नहीं। इतना बोल कर वो वापस दरवाज़ा बंद करने को होती है पर समीर उसे के तरफ करके अन्दर आ जाता है।

टेबल पर रखे केक को समीर ऊँगली में लेके चखता है। फिर अंकिता के सामने घुटनों पर बैठ जाता है।
हाथ का गुलदस्ता उसकी तरफ बढ़ा के समीर कहता है- हैप्पी बर्थडे डियर।

- 'डोन्ट काल मी डियर '- इतना कह कर अंकिता घूम कर खड़ी हो जाती है।

उसके पीछे खड़े होकर समीर कहता है- मैं जनता हूँ आप नाराज़ है, मेरी वजह से आपका बर्थडे सेलिब्रेट न हो पाया।

पर मैं क्या करूँ अंकिता रात बहुत काली होती है। इतनी की इसमें जिंदगियां काली हो जाती है। जरा सोचो जब लोगों को मालूम पड़ता सारी रात हम साथ थे बंद कमरे में तो लोग न जाने क्या-क्या तुम्हारी पवित्रता के बारे में अफवाहें फैलाते। मैं कैसे सुन पाता ये सब तुम्हारे बारे में जिसे मैं प्यार करता हूँ।

- कुछ पलों बाद वो बोली - समीर तुम तो रात में चमकते सूरज की तरह, मैं तुम्हें जान ही न पाई। अब मैं तुम्हारे लायक नहीं क्यूँ की मैं रात में नहीं सुबह लुटी हूँ। सुबह की कालिमा में। इतना कह कर वो वहीं ज़मीन पर रोते-रोते गिर पड़ी। उसने एक महान इंसान को पहचानने में गलती कर दी थी।

कुछ लम्हों बाद समीर ने उसे उठा कर चेयर पर बैठाया और बोल- मैं अब भी अपने प्रपोज का जवाब मांगता हूँ, क्या मुझसे शादी करोगी तुम ?

कुछ बोल न सकी वो। उसे चुप देख समीर बोला- ठीक है तुम आराम से सोच के बताना कल या फिर ओर कभी, अभी मैं चलता हूँ। और वो पलट कर चल दिया।
अंकिता जाते हुए देवता को देख रही थी और फिर भाग कर वो समीर की पीठ से चिपट गयी और उसके होठ बार-बार यही दोहरा रहे थे-

'' हाँ मैं तुमसे शादी करुँगी’’,’’ हाँ मैं तुमसे शादी करुँगी ''
 --Sudheer Maurya 'Sudheer'

Janhit India Oct 2013  ke ank me Prkashit. Aur Kahani Sangrah 'Karz aur any kahaniya' me sammilit.

Friday, 13 September 2013

अनीता भारती की कहानी - नीला पहाड़ लाल सूरज



अनीता भारती
कविता, कहानी और लेख आदि पत्रा-पत्रिाकाओं में प्रकाशित। 'गब्दू राम वाल्मीकि' पर पुस्तिका। दलित
महिलाओं पर लेखन। जन सरोकारों में भी भागीदारी।
एडी-बी, शालीमार बाग, दिल्ली
मो. ०९८९९७००७६७

पसीना पोंछते हुए समर ने दरवाजे पर लगी कॉलबेल बजाने के लिए जैसे ही अपनी उंगली रखी, हर बार की तरह उसकी नजर दरवाजे पर लगी नेम प्लेट पर गई। यह प्रज्ञा और समर का द्घर है। पर आज उसे अपना नाम पढ़ते हुए जरा भी खुशी नहीं हो रही थी। समर को इन दिनों लगने लगा था कि अब यह द्घर प्रज्ञा का है, उसके लिए तो केवल तीन कमरों का मकान रह गया है, जिसमें उसे महज सोने के लिए ही जाना होता है। दरवाजा खुलने से समर की तन्द्रा टूटी। समर ने द्घर में द्घुसते ही चारों तरपफ नजर दौड़ाई, प्रज्ञा कहीं नजर नहीं आई। दरवाजे से लेकर द्घर के अंदर तक चारों तरपफ खिलौने ही खिलौने बिखरे हुए थे। सोपफे की गद्दियां नीचे पड़ी हुई थीं। ड्राइंग रूम पूरी तरह अस्त-व्यस्त पड़ा था। बच्चों ने पूरे द्घर में गदर मचा रखा था। डाइनिंग टेबल की दो-तीन कुर्सियों को आपस में जोड़ कर शायद द्घर की आकृति बना कर चादरों से छत बना दी गई थी, जो अब एक ओर से नीचे लटक रही थी। द्घर को देख कर लग रहा था कि अभी-अभी भूकंप यहां से चक्कर लगा कर गया है, जिसमें उसने केवल खिलौनों पर खासतौर पर अपनी नजर मेहरबान की है। छह साल की सीमोन और चार साल के सि(ार्थ में किसी खिलौने को लेकर छीना-झपटी मची हुई थी। समर ने बच्चों को गुस्से में झटक कर अलग करते हुए पूछा-'मम्मी कहां गई?'
'पता नहीं मम्मी ने बताया नहीं'- सीमोन ने सि(ार्थ का खिलौना लगभग छीनते हुए लापरवाही से जवाब दिया।
समर के मन में चिढ़ की एक लहर-सी उठी और वह मन ही मन बड़बड़ाया-'सारा दिन द्घूमने के अलावा इस औरत को कोई और काम नहीं है। वह खीझता हुआ बेडरूम में गया और पिफर धड़ाम से दरवाजा बंद कर लिया। जोर की आवाज से बच्चे सहम कर एक तरपफ खड़े हो गए। कुछ ही पलों बाद प्रज्ञा दोनों हाथों में सब्जी के थैले लिए हांपफते हुए द्घर में द्घुसी। उसने नीचे समर की मोटर साइकिल देख ली थी, पिफर भी उसने बच्चों से पूछा-'पापा आ गये क्या?'
बच्चों ने कहा-'हां आ गए।' प्रज्ञा ने पिफर पूछा-'कब आए?' सिमोन ने जवाब दिया-'अभी आए हैं और बेडरूम में सो रहे हैं।' यह सुन कर प्रज्ञा को कोई खास हैरानी नहीं हुई। आजकल समर का यही हाल है। द्घर में आते ही चीखना-चिल्लाना और
पिफर औंधे मुंह बिस्तर पर लेट जाना। प्रज्ञा ने कमरे का दरवाजा धीरे से खोला। समर बत्ती बुझा कर लेटा था। प्रज्ञा ने बत्ती ऑन की। कमरा रोशनी से नहा गया। कमरे में लगी डॉ. अम्बेडकर की मनमोहक तस्वीर चमक उठी। साथ में पाब्लो नेरुदा की कविता-'तुम्हारा नाम एक लाल चिड़िया की तरह उड़ता है' पोस्टर के रूप मे टंगी हुई थी, जिसके शब्द नाइट बल्ब की नीली रोशनी में चमक उठे 'मैं उस हठ को प्यार करता हूं
जो अभी भी
मेरी आंखों में है
मैं सुनता हूं अपने हृदय में अपने अश्वारोही
पदचाप
मैं काट खाता हूं सोती आग को और बरबाद
मति को और अंधेरी रातों तथा भगोड़ी सुबहों में
जो तट पर शिविरों में पड़े निगरानी करते हैं
बांझ मुकाबलों से लैस उस यात्राी की
जिसे बढ़ती परछाइयों और कांपते
पंखों के बीच रोक रखा गया है
मैं महसूस करता हूं कि मैं हूं
और मेरी पत्थर भुजाएं मेरी रक्षा करती हैं।'
समर को यह कविता बहुत पसंद थी। वह अक्सर इस कविता को एक रूमानी जोश से पढ़ता था। प्रज्ञा ने प्यार से उसके सिर पर हाथ पफेरते हुए कहा-'अरे, अंधेरे में क्यों लेटे हो?'
समर ने चिढ़ कर प्रज्ञा का हाथ झटकते हुए रुखाई से कहा-'लाइट ऑपफ कर दो, मुझे अच्छा नहीं लग रहा।'
प्रज्ञा ने कहा-'ठीक है, अभी बंद कर देती हूं, पर बताओ तो सही, क्या बात है?'
समर ने उसी चिढ़े स्वर से कहा-'कुछ नहीं, और तुम्हें जानने की कोई जरूरत नहीं, तुम हमेशा बाहर द्घूमो।'
प्रज्ञा को समर की बातें सुन कर थोड़ी हंसी आ गई। प्रज्ञा को लगा, जब समर ऐसी चिड़चिड़ी बातें करता है तो बड़ा 'क्यूट' लगता है। वह उसे चिढ़ाने के लिए गुदगुदी करते हुए बोली-'अरे यार, मैं तो सब्जी लेने गई थी। यहीं तो थी। कितने पजेसिव हो तुम मेरे लिए। एक मिनट की जुदाई भी बर्दाश्त नहीं कर सकते!' कहते हुए प्रज्ञा का चेहरा प्रेमानुराग से दमक उठा।
प्रज्ञा के गुदगुदी करने से समर को उतना बुरा नहीं लगा, जितना उसे अपने लिए पजेसिव सुनना। यह शब्द सुनते ही मानो उसके तन-बदन में आग-सी लग गई। वह उसके हाथ को बुरी तरह झटकते हुए बोला- हां हां, पजेसिव ही क्यों, ये भी कह दो कि मैं बहुत शक्की हूं। तुम्हें मारता-पीटता हूं, तुम्हें बाहर जाने से रोकता हूं। कहो, कहो कि तुमने एक जल्लाद से शादी की है और अब पछता रही हो?
प्रज्ञा के मन में एक बार तो आया कि समर को और चिढ़ाने के लिए मजाक में ही सही, कह दे कि हां, मैं तुमसे शादी करके पछता रही हूं। पर यह सोच कर चुप रह गई कि कहीं ये मजाक उस पर उल्टा न पड़ जाए। दूसरे, आज उसे समर पर कतई गुस्सा नहीं आ रहा था, इसलिए वह इतनी बातें सुनने के बाद भी प्यार से समर के गुस्से को शांत करने की कोशिश कर रही थी। और कोई दिन होता तो वह उसे बहस और लड़ाई में कब की पछाड़ चुकी होती। पर आज वह समर को एक खुशखबरी सुनाने के लिए बेताब थी। इसलिए वह अपने गुस्से को दबाते हुए मुस्कुरा रही थी। उधर आरोप-दर-आरोप जड़ने के बावजूद प्रज्ञा को मुस्कुराते देख समर के भीतर का मर्दाना अहं जाग उठा। उसने लगभग चिल्लाते हुए कहा-'दिन में क्या करती हो? उस समय क्यों नहीं सब्जी खरीद लेती? मुझे दिखाना चाहती हो कि तुम द्घर का कितना काम करती हो और मैं कितना निखट्टू हूं?'
समर को समझाने की सारी कोशिशें नाकाम थीं और वह बिना वजह चिल्लाए जा रहा था। प्रज्ञा चुप हो गई, आंखों में आंसू भर आए। जब से सिमोन और सि(ार्थ हुए हैं, तब से प्रज्ञा ने अपने गुस्से पर नियंत्रण करना सीख लिया है। कई बार वह अपने बच्चों की वजह से चुप रह जाती तो कई बार इस डर से कि कहीं उसका प्यार भरा द्घरौंदा तिनका-तिनका होकर बिखर न जाए। वह दुखी मन से बोली-'सारे दिन तो द्घर में इतने काम रहते हैं। ऊपर से आज लक्ष्मी भी नहीं आई। उसके हिस्से का काम भी मुझे करना पड़ा। आधा दिन बच्चों की लड़ाई निपटाने में बीत जाता है। आज सब्जी भी खत्म हो गई थी तो सोचा तुम्हारे आने से पहले सब्जियां ही ले आती हूं।' लेकिन समर को प्रज्ञा की बातों से न सहमत होना था, न वह हुआ। उलटे व्यंग्य भरे स्वर में बोला-'चलो, आज तो तुम सब्जी लेने गई थी। मान लिया, पर कल भी तुम द्घर में नहीं थी और उसके दो दिन पहले भी नहीं।'
प्रज्ञा जानती थी कि समर का सारा गुस्सा उसके काम को लेकर ही है।
प्रज्ञा पिछले कई सालों से महिलाओं के एक समूह से जुड़ कर सक्रिय रूप से काम कर रही थी। अब पारिवारिक
व्यस्तताओं के चलते वह उसमें कभी-कभार ही जा पाती है। लेकिन पिछले पंद्रह दिनों से उसे लगभग रोज जाना पड़ रहा है। कारण ही कुछ ऐसा हो गया कि वह अपने आप को नहीं रोक पा रही थी। बल्कि उसे लग रहा है कि यह उसका पफर्ज है। संस्था की एक सक्रिय कार्यकर्ता और उसकी बचपन की दोस्त मुन्नी और उसके भाई नवीन को दबंग जाति के उनके पड़ोसियों ने एक झूठे मामले में पफंसा कर थाने में बंद करवा दिया। मुन्नी को संस्था के लोग यह कह कर छुड़ा लाए कि थाने में कोई महिला पुलिस नहीं है तो वह कैसे रात भर थाने में रह सकती है और नवीन को अगले दिन छुड़वा लेने की उम्मीद पर वे सब लोग वापस द्घर लौट आए। लेकिन उसी दिन आधी रात को मुन्नी का रोते हुए पफोन आ गया कि पुलिस ने नवीन से झूठा जुर्म कबुलवाने के लिए उसे पीट-पीट कर मार डाला। नवीन की मौत के जिम्मेदार पुलिस वालों और दबंगों को पकड़वाने के लिए उसे और उसके साथियों को रोज कहीं न कहीं और किसी न किसी से मिलना पड़ रहा है। साथ- साथ धरना-प्रदर्शन, प्रेस रिलीज आदि का भी काम चल रहा है। कल भी वह संस्था की सब बहनों के साथ पुलिस मुख्यालय गई थी पुलिस कमिश्नर से मिलने। समर शायद इसी वजह से गुस्सा चल रहा है। उसने सोचा था कि समर को वह हर बार की तरह मना लेगी। लेकिन इस बार उसे देख कर लग रहा था कि वह गुस्से के ज्वालामुखी पर बैठा हुआ है।
वह समर को समझाने के स्वर में बोली-'ठीक है समर, कभी-कभी तो बाहर जाना मेरा भी अधिकार है।' समर प्रज्ञा के मुंह से अधिकारों की बात सुन कर चिढ़ गया। उसका मुंह कसैलेपन से भर गया और वह रोष में बोला-'मैं जानता था, अभी तुम सीधे अधिकारों पर आ जाओगी। अब चाहोगी कि रोज मीटिंग में जाओ और मैं बर्तन मांजूं। तो मैं ऐसा कभी नहीं करूंगा। आखिर मैं भी तो काम से थक कर लौटता हूं! मुझे भी तो सुकून चाहिए! बीबी से अपने लिए समय चाहिए।
प्रज्ञा को समर के ऐसे ताने सुन कर गुस्सा आ गया। वह आपे से बाहर होती हुई बोली-'समर, तुम्हें मालूम था। मैं शादी से पहले सामाजिक काम करती थी। उस समय तो तुम मुझे बहुत प्रोत्साहित करते थे। अब तुम्हें क्या हुआ? एक बात मैं तुम्हें बता दूं। तुम्हारे कहने या गुस्सा करने से मैं ये काम नहीं छोड़ने वाली। आखिर इस दमद्घोंटू वातावरण में मुझे भी तो कुछ पल खुशी के चाहिए। दिलो-दिमाग को सुकून चाहिए, लोगों का साथ चाहिए।'
'अब आई न असली बात पर! ठीक है, द्घूमो लोगों के साथ और मुझे और मेरे बच्चो को छोड़ दो।' समर के ताने सुन कर प्रज्ञा का सिर भन्ना गया और वह गुस्से से बड़बड़ाती हुई उठी और मन ही मन बोली-'भाड़ में जाओ तुम और तुम्हारा परिवार। मैं अब तुम्हें नहीं मनाऊंगी।' कहते-कहते वह खाना बनाने िकचन में चली गई।
आजकल प्रज्ञा और समर आपस में ऐसे ही लड़ते रहते हैं। ऐसा नहीं कि दोनों में प्यार नहीं है। प्यार है और अगर प्यार न होता तो क्या वे समाज से लड़कर उसके सब कायदे-कानूनों को धता बता कर किए गए प्रेम विवाह को निभाते रहते। लेकिन आपस में द्घनिष्ठ प्यार के बाबजूद चाह कर भी वे एक-दूसरे के मन को शायद नहीं समझ पाते। हो सकता है इसका जिम्मेदार दोनों का भिन्न-भिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश का होना हो। आमतौर पर सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक हैसियत से उत्पन्न स्थिति ही व्यक्ति के अंदर मूल्यों के निर्धारण में मुख्य भूमिका अदा करती है। प्रज्ञा जिस समाज से संबंध रखती है, वहां औरतों को अपने पति से हर बात के लिए बार-बार आज्ञा नहीं लेनी पड़ती। पति को देवता की तरह पूजने की परंपरा नहीं है। टोका-टाकी पर मुंहतोड़ जबाव देना बुरा नहीं माना जाता। जातीय अपमान झेलने से लेकर शोषण के दमन-चक्र में पिसने तक और आपस में हास-परिहास मौज-मस्ती करने तक में पति-पत्नी दोनों की बराबर की हिस्सेदारी होती है।
प्रज्ञा आजाद पंछी की तरह समर के साथ गाना चाहती है, चहकना चाहती है, चारों ओर द्घूमना चाहती है। पर समर को एकांत, शांतिपूर्वक द्घर में बैठना पसंद है। ऐसा नहीं कि समर बचपन से एकांतप्रिय हो या उसे भीड़ से नपफरत हो। यह भी कारण नहीं है कि उसे सामाजिक कामों में रुचि न हो। लेकिन समर को कुछ महीनों से लगने लगा है कि उसने दुनिया बदलने के लिए बहुत समाज सेवा कर ली। अब ठहर कर अपना खुद का मूल्यांकन करने की बारी है। इसलिए वह अब सामाजिक जीवन से विराम चाहता है। पिफर बच्चे भी बड़े हो रहे हैं, सो बच्चों की तरपफ भी उन दोनों का पफ़र्ज है। और सच बात तो यह है कि प्रज्ञा से शादी करने के बाद उसे द्घर में रहना अच्छा लगने लगा है। वह प्रज्ञा के साथ एक सुकून भरी शांत जिं़दगी जीना चाहता है। समर को लगता है कि जब वह द्घर आए तो प्रज्ञा उसे द्घर में मिले, वह उससे प्यार-मोहब्बत की बातें करें, सुंदर सुरुचिपूर्ण सजे द्घर में उसे बढ़िया खाना पका के खिलाए, ऑपिफस के लिए तैयार होने में उसकी पूरी मदद करे। कपड़े सापफ-सुथरे धुले मिलें। इनमें से किसी एक की कमी होने पर वह बहुत जल्दी चिढ़ जाता।
कुछ साल पहले तक दोनों सभी सभा-सोसायटियों में साथ-साथ जाते थे, पर समर ने धीरे-धीरे सब जगह जाना कम और पिफर लगभग बंद-सा कर दिया। उसे अहसास होने लगा कि सब लोग इतने सालो से सिपर्फ गाल बजाने का काम कर रहे हैं, काम कुछ बढ़ नहीं पा रहा। अक्सर वह बड़बड़ाने लगता कि सब साले मीटिंगों में दारू पीने, लंबी-लंबी हांकने और मौका मिले तो इश्कबाजी करने आते हैं। अब तो वह इन सभा-सोसायटियों के नाम से भी चिढ़ने लगा। जब भी कहीं से बुलावा आता तो वह उसे नजरअंदाज कर देता। पर प्रज्ञा में अभी आग बाकी थी और उसका आंदोलन से विश्वास नहीं उठा था। कठिन परिस्थितियों में जीने के कारण एक औरत यों भी इतनी जल्दी
निराश-हताश नहीं होती जितना मर्द। प्रज्ञा के हताश न होने का एक कारण शायद उसके अपने समाज की हालत में सदियों से कोई परिवर्तन नहीं होना था। वह अपनी आग को अपने समाज के लिए बचाए रखना चाहती थी। इसलिए उसने दो-तीन सामाजिक संगठनों से लगातार अपना जुड़ाव बनाए रखा हुआ था।
पूरे दो द्घंटे किचन में तरह-तरह की खुशबू उड़ाने के बाद वह समर के पास आई और उसे जगाते हुए बोली-'देखो, मैंने खाना बना कर टेबल पर लगा दिया है। मन करे तो खा लेना, वरना तुम्हारी मर्जी।' उसे लगा शायद समर उसे रोक लेगा। पर वह बिना हां-हूं किए बिस्तर पर मुर्दे की तरह पड़ा रहा। प्रज्ञा निराश हो बच्चों को खाना खिलाने चली गई। खाना खिलाते-खिलाते उसका मन अतीत की तरपफ उड़ चला। मन में विचारों की आंधी-सी चलने लगी। प्रज्ञा समर से जंतर-मंतर पर हो रहे एक प्रदर्शन के दौरान मिली थी। अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त मोटरसाइकिल बनाने वाली एक कंपनी ने बिना किसी पूर्व सूचना के अपनी कंपनी से कई सौ मजदूरों की एकाएक छंटनी कर दी। जब कंपनी मजदूरों ने छंटनी का विरोध किया तो कंपनी ने विरोध दबाने के लिए पुलिस और किराए के गुंडों से उनकी बेरहमी से पिटाई करवाई, जिसमें दो मजदूरों की मौत हो गई और अनेक मजदूर द्घायल हो गए। कंपनी द्वारा मजदूरों पर ढाए गए जुल्मों के विरोध में आजाद मजदूर एकता संद्घ ने कंपनी के आगे अनिश्चितकालीन धरना रखने का पफैसला लिया। मजदूर संद्घ के पंद्रह-बीस नौजवान साथी रात-दिन धरने पर बैठ रहे थे। समर क्योंकि मजदूर संद्घ का होलटाइमर था, इसलिए वह उस धरने में न केवल दिन-रात बैठ रहा था, बल्कि वह उस पूरे आंदोलन का सक्रिय नेतृत्व भी कर रहा था। धरने पर लगातार कई दिन बैठने का जब कोई असर नहीं हुआ तो आजाद मजदूर एकता संद्घ ने एक सामूहिक बैनर तले मजदूरों की मांगों के समर्थन में तमाम तरह की जनवादी लोकतांत्रिाक और मानवतावादी ताकतों को इकठ्ठा कर संसद के सामने एक बुलंद आवाज के रूप में सरकार को चेताने के लिए प्रचंड प्रदर्शन रखा। इसी प्रदर्शन में अन्य कार्यकर्ताओं के साथ प्रज्ञा भी अपनी सामाजिक संस्था दलित सरोकार की तरपफ से आई थी। वह आजाद मजदूर एकता संद्घ द्वारा मजदूरों के हकों के लिए लड़ी जा रही लड़ाई से पूर्ण सहमत थी।
उसका मानना था कि गांव के खेत-खलिहानों से लेकर शहर की मिलों और पफैक्ट्रियों आदि में काम कर रहे कुल मजदूरों में नब्बे प्रतिशत मजदूर तो दलित वर्ग के ही हैं। इनका इतनी बडी संख्या में मजदूर बनने और गांव छोड़ देने की सबसे बड़ी वजह उनका भूमिहीन होना है। मात्रा दलित होने के कारण ही वे गांवों में रात-दिन जातीय अपमान झेलते रहे। ऊंची जाति के लोगों के यहां बंधुआ मजदूरी करते- करते अपनी इंसानी गरिमा खोकर पशुओं की तरह लुटते-पिटते मार खाते रहे और अंततः एक दिन जाति आधारित सामाजिक आर्थिक उत्पीड़न नहीं सह पाने की स्थिति में गांवों से पलायन कर पफैक्ट्रियों में मजदूर बनके खप गए। एक नरक से निकल कर दूसरे नरक में आ गिरे जहां न उनका कोई भविष्य है, न उनके बच्चों का। दलित का बच्चे दलित और मजदूर के बच्चे मजदूर। पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा अन्याय। शहरों की गंदी झुग्गी बस्तियों में कीड़े- मकोड़ों की तरह जीने को मजबूर। इंसानी गरिमा से कोसों दूर। प्रज्ञा शिद्दत से महसूस करती कि जातीय कलंक से छुटकारे के साथ-साथ आज दलित वर्ग को आर्थिक समानता के लिए भी बराबरी से लड़ना चाहिए।
यही सोच उसे इस प्रदर्शन में खींच लाई थी। वह रोज इस धरने में दो-तीन द्घंटे बैठती थी। यहीं उसकी मुलाकात समर से हुई और मुलाकातें प्यार से होती हुई जल्दी ही शादी में बदल गईं। शादी के दो वर्ष बड़े मजे से गुजरे। दोनों ने कई शाम दोस्तों के साथ मंडी हाउस के चायखाने पर तरह-तरह के मुद्दों पर लड़ते-झगड़ते, बहस करते हुए बिताई, उनकी शादी का भी बड़ा खास आयोजन हुआ था। न प्रज्ञा के मां-बाप आए न समर के। उनके सभी दोस्तों ने उनकी शादी में बड़ी पार्टी की थी। सबने अपने-अपने काम बांट लिए थे। एक तरपफ कुछ साथी क्रांतिकारी गानों के साथ पाश, मुक्तिबोध और धूमिल की कविता कह रहे थे, तो दूसरी तरपफ कुछ मजदूर साथी जल्दी-जल्दी रोटी बना रहे थे और कुछ उसके जिगरी दोस्त विप्लव के साथ मिल कर ढेर सारा मटन पका रहे थे। ईंटों पर बने चूल्हे को पफूंकते-पफूंकते विप्लव की आंखें लाल हो गई थीं। वह पसीने से तर-बतर था। पूरे दृश्य को याद कर प्रज्ञा को हंसी आ गई। तनाव उसके मन से कापफूर हो गया। विप्लव, उसके बचपन का दोस्त, जिसे समर भी अक्सर याद करता रहता था। आज वह सात साल बाद लौटा है। पता नहीं कहा चला गया था अचानक। यही खुशखबरी वह समर को सुनाना चाहती थी कि कल की सभा में विप्लव आया था। वह बार-बार समर के बारे में पूछ रहा था। पर समर कुछ सुनने को तैयार नहीं था। उसके मन में विचारों की आंधी-सी चलने लगी। रात में समर सोता हुआ, उसे बड़ा भोला लगा। वह चुपचाप उसके बगल में जाकर सो गई।
सुबह समर जल्दी ही उठ गया। कल का गुस्सा अभी तक उसके चेहरे से झलक रहा था। प्रज्ञा अभी तक सो रही थी। उसने एक नजर प्रज्ञा को देखा और मुंह बिचका कर मन में सोचा कि कितने चैन से सो रही है। कल मेरे भूखे रहने की इसे कोई चिंता नहीं है। इस द्घर में मेरी कोई कद्र ही नहीं है। वह भारी कदमों से उठा और बाथरूम में चला गया। मुंह धोकर वह रसोई में गया। यह सोच कर कि कुछ खाने को मिल जाए शायद। रात भर भूखे रहने से उसे जोर की भूख लग आई थी। तभी उसकी निगाह ढंकी प्लेटों की तरपफ गई। प्लेटों में खाना ढंका रखा था। इसका मतलब मेरे साथ-साथ प्रज्ञा ने भी खाना नहीं खाया। समर को राहत महसूस हुई। उसका मन प्रज्ञा के लिए थोड़ा नरम हो आया। मन में आया कि वह प्रज्ञा से मापफी मांग कर बात यहीं खत्म कर दे। पर तभी उसकी नजर खाने की प्लेट के पास रखे प्रज्ञा के मोबाइल पर गई, जिस पर कोई संदेश फ्रलैश कर रहा था। उसने झट से संदेश को खोल कर देखा। संदेश था-
'ताजी हवा में पफूलों की महक हो,
पहली किरण में चिड़ियों की चहक हो,
जब भी खोलो तुम अपनी पलकें,
उन पलकों में बस खुशियों की झलक हो।
गुड मार्निंग मैडम...।'
भेजने वाले का नाम नहीं था। समर के मन में शक का कीड़ा कुलबुला उठा। उसे प्रज्ञा के साथ हुई रात की लड़ाई के सारे दृश्य एक-एक करके याद आने लगे। वह सोचने लगा कि कल मेरे द्वारा लगाए झूठे आरोप सुन कर भी वह परेशान न होकर इतनी खुश क्यों थी। कहीं कोई चक्कर तो नहीं...। उसने मोबाइल के इनबॉक्स को जल्दी-जल्दी खोल कर देखना ही शुरू किया था कि उस नम्बर से पिफर एक और संदेश 'टंग' की आवाज के साथ आ गया-
'पुराने दिनों की खुशनुमा याद,
कर रही है पिफर वही पफरियाद,
चलो, शुरू करें पुराना संवाद,
मैं कौन हूं, पहचानो न जल्दी मेरे यार...'
दूसरा संदेश पढ़ते ही समर का शक पक्का होने लगा। उसे लगा, हो न हो, यह उसका कोई पुराना दोस्त है जिसका राज उसने आज तक उससे छिपा कर रखा हुआ है। समर ने सबसे पहले संदेश भेजने वाले का नंबर अपने मोबाइल में पफीड किया। और पिफर संदेश भेजने वाले का नंबर डायल करने लगा। एक बार, दो बार और न जाने कितनी बार। बार-बार डायल करता रहा, पर हर बार नाकाम। दूसरी तरपफ से पफोन लगातार बिजी जा रहा था। वह गुस्से में भन्ना उठा। प्रज्ञा से कैसे पूछे कि तुम्हारे मोबाइल में ये किसके संदेश लगातार आ रहे हैं? समर जानना चाहता था कि संदेश भेजने वाला लड़का है कि लड़की। चूंकि वह रात को प्रज्ञा से लड़ बैठा है, इसलिए अब वह प्रज्ञा से कैसे पूछे कि ये संदेश तुम्हारे लिए कौन भेज रहा है। उसे पता है कि उसके पूछते ही प्रज्ञा पूरे द्घर में तूपफान खड़ा कर देगी। एक बार बिपफर गई तो यमदूत भी उसे आकर नहीं संभाल सकता।
उस दिन की द्घटना उसे आज तक याद है। एक बार वह प्रज्ञा के साथ
ब्लूलाइन बस से द्घर आ रहा था। बस में बहुत भीड़ थी। भीड़ का पफायदा उठाते हुए एक आदमी ने अपने पैर से प्रज्ञा के पैर को बुरी तरह दबा दिया था। प्रज्ञा ने आपत्ति जताई तो वह बदतमीजी से बोला-'अगर इतनी नाजुक परी बनती है तो अपनी गाड़ी में चला कर।' प्रज्ञा ने उसको करारा जवाब देते हुए कहा-'तू कौन होता है मुझे बताने वाला कि मैं कैसे सपफर करूं? तेरे बाप की बस है?' एक औरत से बदतमीजी से उल्टा जवाब पाकर वह भन्ना उठा। इसी भन्नाहट में वह अंट-शंट बड़बड़ाने लगा-'पता नहीं, कहां-कहां से आ जाती हैं मर्दमार।' प्रज्ञा को उसका बड़बड़ाहट में अंतिम शब्द 'मर्दमार' सुनाई दे गया। पिफर क्या था, प्रज्ञा ने उस आदमी को कॉलर पकड़ कर खींच लिया और उसके मुंह पर खींच कर दो-तीन चांटे इतनी जोर से मारे कि उसके मुंह से खून भी निकलने लगा। प्रज्ञा और उस आदमी के बीच-बचाव में उसे भी एक धक्का लग गया था। बस के यात्राी स्तब्ध खडे़ रह गए। प्रज्ञा की बहादुरी पर वह उस दिन रीझ उठा था। बस से उतरने के बाद उसने प्रज्ञा का हाथ कस कर पकड़ते हुए मुस्कुरा कर कहा-'उसे अच्छा सबक सिखाया तुमने। पिफर किसी औरत की तरपफ आंख उठा कर नहीं देखेगा।' उस दिन द्घर आकर समर ने ही खाना बना कर खिलाया। यह प्रज्ञा की बहादुरी का इनाम था।
उसका ध्यान पिफर मोबाइल की ओर चला गया। उसके दिमाग में एक आइडिया आया। क्यों न वह भेजने वाले को संदेश करके उससे ही पूछ ले कि आप कौन हैं और प्रज्ञा को कैसे जानते हैं। समर ने तुरंत मोबाइल पर प्रश्न चिन्ह के साथ तीन शब्द टाइप किए-'हू आर यू?' और उसे भेज दिये। दो-चार मिनट तक मैसेज का रिप्लाई न पाकर वह उसकी और
जानकारी पाने के लिए बेताब हो गया। वह कमरे में गया। देखा अभी तक प्रज्ञा बेपिफक्र सो रही थी। उसका हाथ प्रज्ञा की अलमारी की तरपफ बढ़ा। धीरे से अलमारी खोलते ही उसकी नजर बैग पर गई। अलमारी में प्रज्ञा का बैग रखा था। उसने पफटापफट बैग में हाथ द्घुमाया बैग में कुछ रुपए और कुछ पर्चियों के अलावा कुछ नजर नहीं आया। उसने सिर द्घुमा कर देखा उसे प्रज्ञा के चेहरे पर निश्छलता नजर आई, उसे लगा कि प्रज्ञा ऐसा कभी नहीं कर सकती। बैग और आलमारी खंगालने के बाद भी जब समर को चैन नहीं पड़ा तो पिफर उसका ध्यान मोबाइल की ओर गया। इस बार उसने संदेश के एक एक शब्द को किसी जासूस की तरह ध्यान से पढा़। शायद भेजने वाले का सुराग लग जाए। पूरे संदेश की आखिरी लाइन जब भी खोलो, वही थी-'...उन पलकों में खुशियों की झलक हो' पढ़ कर समर के मन में विचित्रा-सी कड़वाहट भर गई। वह कुढ़ कर मन ही मन
बुदबुदाया-'हां साले, तू ही उसे खुशी दे सकता है। बस हम ही हैं, जो उसे रोज खून के आंसू रुला रहे हैं।' जरूर प्रज्ञा ने उसके सामने अपने द्घर में बंद होकर बैठने के रोने रोए होंगे।
समर को विश्वास होने लगा कि हो न हो, प्रज्ञा का कोई चक्कर जरूर है। मगर चल भी रहा हो तो मुझे कैसे पता चलेगा। मैं द्घर में थोड़े ही रहता हूं। यानी मेरे दफ्रतर जाने के बाद यही सब होता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि मीटिंगों के बहाने उससे मिलती हो। अब उसे प्रज्ञा पर गुस्सा आने लगा। उसे लगा कि वह प्रज्ञा को अभी झिंझोड़ कर उठा दे और पूछे कि ये सब कब से चल रहा है। पर उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी। अगर यह सब झूठ निकला तो बेकार में उसके सामने
बेइज्जती हो जाएगी। और अगर सच निकला तो...! आखिर प्रज्ञा मेरे साथ ऐसा क्यों करेगी। मैंने हमेशा उसे अपनी दोस्त की तरह माना है। पति होने के नाते उस पर कभी अपने विचार नहीं लादे। मेरे द्घर की सारी औरतें मां से लेकर भाइयों की बीवियां तक सिर ढंक कर रहती हैं। अभी भी छत की बालकनी तक में मेरी बहनों को अकेले खडे़ होने की मनाही है। ऐसे परिवार में होते हुए भी मैंने शादी के पहले दिन ही प्रज्ञा से स्पष्ट कह दिया था कि तुम्हारी मर्जी है, बड़ों के सामने सिर ढंको या मत ढंको। परिवार की औरतों के द्घरेलू मामले में निर्णय लेने के अधिकार मैंने तुम्हे सौंप दिए हैं। एक तरह से देखा जाए तो मैंने उसे द्घर और बाहर की औरतों से ज्यादा आजादी दी। मैं द्घर का पूरा खर्चा उसके हाथ में देता हूं। दो-दो बच्चे, रहने लायक द्घर, सापफ-सुथरा माहौल-सब मैंने उसे दिए हैं। एक औरत को इससे ज्यादा और क्या चाहिए। अच्छा कमाता हूं, देखने में कइयों से अच्छा हूं। मैं उसे कभी किसी औरत या मर्द से मिलने से भी नहीं रोकता। हां, अगर मर्दों से मिलते वक्त मैं उनकी औरतों को लेकर कुछ कमियां बताते हुए प्रज्ञा को उनसे सावधान रहने के लिए कहता हूं तो इसमें बुरा क्या है। लेकिन प्रज्ञा मेरी पूरी बात सुने बिना ही लड़ने लगती है। समर का मन किया कि वह प्रज्ञा को उठा कर संदेश दिखाए और कहे कि देखो, मैं तुम्हे केवल इस तरह के मर्दों से सावधान रहने को कहता हूं। तुम पर मेरा अपने प्रति पजेसिव का आरोप लगाना कितना मनगढ़ंत है।
तभी उसकी निगाह सोती हुई प्रज्ञा पर गई। बड़ी सुंदर लग रही थी वह। नींद में मुस्कुरा रही थी। जरूर कोई सपना देखा होगा। मुस्कुराते हुए उसके अधखुले होठ देख कर समर के मन में आया कि वह प्रज्ञा को बाहों में भर ले और उसके अधखुले होठों पर चुंबन की झड़ी लगा दे और कहे तुम केवल मेरी हो। अगर तुम्हारी तरपफ किसी ने आंख उठा कर देखा भी, तो उसकी आंखें बाहर निकाल लूंगा। समर के मन में प्रतिहिंसा का भाव जाग उठा। उसका ध्यान प्रज्ञा से हट कर पिफर संदेश भेजने वाले की ओर चला गया। वह पिफर संदेश भेजने वाले का मान-मर्दन करने के लिए मन ही मन योजना बनाने लगा। एक बार मन में आया कि वह उसकी शिकायत पुलिस में कर दे। पर दूसरे ही पल आशंका जागी कि अगर कोई जान-पहचान का या करीबी निकला तो? चलो एक बार और कोशिश करके देख लेता हूं। यह सोच कर उसने पिफर नंबर मिलाया। शायद यह पच्चीसवीं कॉल थी। पफोन की द्घंटी जा रही थी, पर कोई उधर से उठा नहीं रहा था।
तभी दरवाजे पर लगी कॉलबेल जोर से चिंद्घाड़ उठी। समर का ध्यान बरबस द्घड़ी पर गया। देखा सुबह के साढ़े पांच बजे थे। आश्चर्य हुआ। इतनी सुबह कौन आ गया। दरवाजा खोलते ही देखा, सामने कोट-पैंट-टाई में विप्लव खड़ा था। लड़कियों में अपनी खूबसूरत पर्सनालिटी को लेकर चर्चित विप्लव एकदम बदला-बदला-सा लग रहा था। पतले-दुबले विप्लव की जगह अब मोटे थुलथुल विप्लव ने ले ली थी। आंखों पर कीमती चश्मा, कलाई पर महंगी द्घड़ी। समर विप्लव को आश्चर्य से मुंह खोले एकटक देख रहा था। तभी विप्लव ने समर के पेट पर प्यारा और हल्का-सा द्घूंसा जमाते हुए कहा-'साले, दरवाजे से तो हट, अंदर नहीं आने देगा।' 'अरे यार, क्यों नहीं'-समर ने अचकचा कर रास्ता देते हुए कहा। आश्चर्यचकित होते हुए समर ने कहा-'यार, इतनी सुबह! न पफोन न कोई खबर?'
'अभी तक तू मुझे चौबीस पफोन कर चुका है और अभी तेरा पच्चीसवां पफोन दरवाजे पर था, तब आया। सोच रहा होगा कि क्यों नहीं मैंने तेरा पफोन उठाया। मैंने भी सोचा कि बच्चू को दिमाग के द्घोडे़ दौड़ाने दो। देखता हूं कि कुछ पूंछ पकड़ पाता है या नहीं। पूंछ क्या द्घोडे़ की मूंछ का बाल भी नहीं छू पाया न? प्रज्ञा को संदेश मैंने ही भेजा था, तुझे जलाने के लिए। देख कर लग ही रहा है साले कि जल कर कोयला हो गया है तू! क्यों ठीक कहा ना मैंने?' समर ने सकुचाते हुए कहा-'नहीं यार, मैं तो केवल जानना चाहता था कि ये संदेश भेजने वाला कोई मर्द है या औरत।' 'अच्छा, तो यह जानने के लिए इतने पफोन? यार, तू तो बिल्कुल नहीं बदला।' यह कहते हुए विप्लव ने जोर का ठहाका लगाया। समर ने झेंप मिटाते हुए कहा-'यार, लेकिन तू तो बहुत बदल गया है। क्या ठाठ हैं तेरे। कहां काम करता है?'
'नवजीवन पफूड सप्लायर्स कंपनी का एमडी हूं मैं।' विप्लव ने सोपफे पर और चौडे़ होकर बैठते हुए कहा। जैसे वह समर का द्घर न होकर उसकी कंपनी का दफ्रतर हो।
'अच्छा! कंपनी क्या काम करती है?' समर ने उत्सुकुता से पूछा।
'कंपनी क्या काम करेगी यार। जो मैं चाहूंगा, वही करेगी। एक तरह से मैंने ही उसे पांव पर खड़ा किया है। पहले कंपनी रेडीमेड क्लॉथ सप्लाई करती थी। पर मेरे कहने पर कंपनी के मालिक ने उसकी एक सिस्टर ब्रांच बनाई है जो अब किसानों से सीधे और सस्ते रेट पर पफल खरीद कर उनका जूस, जैम और पल्प बना कर विदेश भेजती है। अभी हम एक और कंपनी खोलने जा रहे हैं जो गांवों और शहरों में खाली पड़ी जमीन पर सरकार और अधिकारियों की मदद से
लोगों को सस्ते दर पर द्घर बना कर देगी। आज मैं उसी कंपनी के एजेंट रखने के इंटरव्यू लेने आया हूं। 'ताज' में ठहरा हूं। और समर, तुम क्या कर रहे हो?' समर कुछ बोल पाता, उससे पहले ही विप्लव बोल उठा- 'हां, कल प्रज्ञा से तुम्हारे बारे में खूब बातें हुईं। उसी ने बताया कि तुम बीमा कंपनी में सुपरवाइजरी करते हो। यू नो समर, साथ-साथ पढ़ते, काम करते हुए हम सबने समाज बदलने के जो सपने देखे थे, कभी-कभी मुझे लगता है कि मैं ही अकेला उनको पूरा करने में लगा हुआ हूं बाकी सब तुम्हारे जैसे ही अपनी रोजी-रोटी के चक्कर में लगे हुए हैं। मैंने समाज बदलाव के तरीकों की बनी बनाई द्घिसी-पिटी ट्रेडीशन को तोड़ा है, मैं एकदम अलग व अपने तरीके से ग्रासरूट पर काम कर रहा हूँ। याद है ना सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता 'लीक पर वे चले जिनके चरण दुर्बल और हारे हैं, हमें तो अपनी यात्रााओं से बने अनिर्मित पंथ प्यारे हैं।' मैं संतुष्ट हूँ कि मैं कहीं भी रहकर कुछ भी करूं पर अपने सामाजिक दायित्व पूरे निबाह रहा हूँ।'
अभी तक समर विप्लव की बातें ध्यान से सुन रहा था। समर को विप्लव एक बडे़ आदमी के रूप में दिख रहा था। पर उसकी जिज्ञासा इस बात में थी कि वह एकाएक कहां चला गया था। पर अपनी आलोचना सुन कर विप्लव की बातों से उसे अरुचि-सी होने लगी। वह बात को बीच में काटते हुए बोला-'पर तू अचानक कहां चला गया था बिना बताए?' विप्लव ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा-'तेरी शादी के बाद मां का पफोन आया कि वे बहुत बीमार हैं। मैं सुन कर सीधा द्घर चला गया। खैर, वे शरीर से कम मन से ज्यादा बीमार थीं। मुझे और मेरे काम को लेकर चिंतित रहती थीं। तुम तो सारे कारण जानते ही हो जिनके वजह से शुरू से ही मेरा मां और बाबा से झगड़ा रहा। वे मुझे दिल्ली भी पढ़ने के लिए नहीं आने देना चाहते थे। पर उस वक्त मैं नासमझ और भावुक था। जिद पर अड़ गया तो वे मना नहीं कर सके। आखिर इकलौता बेटा जो ठहरा। दिल्ली में आकर पार्टी में भी जुड़ा। इससे भी उन्हें बहुत दुख हुआ था। उस समय भी मैंने उनकी परवाह नहीं की और अपना काम करता रहा। पर उनको बीमार देख मुझे बहुत बुरा लगा। लगा कि मैं कब तक उनका विरोध करता रहूंगा। न वे ही सुख से मर पाएंगे और न मैं सुख से जी पाऊंगा। इसलिए मैंने उनका कहना मान कर द्घर का
बिजनेस संभाल लिया। उनकी मर्जी से शादी कर ली? चल तुझे अपनी पफैमिली से मिलवाता हूं।' विप्लव ने जेब से पफोन निकाला। समर का ध्यान बरबस उसके महँगे पफोन की तरपफ चला गया। उसने
उत्सुकता से पूछा-'ब्लैकबैरी है?' 'नहीं यार, एप्पल का है। आई पफोन पफोर है। लेटेस्ट है। टच-स्क्रीन है। कल ही खरीदा है। विप्लव ने प्यार से मोबाइल पर उंगलियां द्घुमानी शुरू कीं। समर को लगा कि वह पफोटो कम अपना मोबाइल अधिक दिखा रहा है। पफोटो की जगह उसने द्घर का वीडियो दिखाया। आलीशान द्घर, बगीचा, स्वीमिंग पूल, दो बड़े-बडे़ कुत्ते पकड़े खड़ा गंवई सा लड़का ...।
समर ने विप्लव के सामने अपने को कुछ दबा-दबा-सा महसूस किया। विप्लव का चेहरा खुशी से दमक रहा था। समर के चेहरे का रंग बदलते देख उसने समर से चुटकी लेते हुए कहा-'तेरी भाभी का पफोटो दिखाता हूं। तू उसे देख कर गश खा जाएगा।' 'क्या बहुत खूबसूरत हैं?' समर ने रुचि दिखाते हुए कहा। 'अभी दिखाता हूं यार। इतना अधीर क्यों होता है।' विप्लव स्क्रीन को टच करके एक पफोटो ऊपर ले आया-'देख, ये है तेरी भाभी सविता।' सविता की पफोटो देख समर के मुंह से निकला-'अरे, तो तुमने सविता से शादी की है। हाऊ कम? तुम तो उससे बहुत चिढ़ते थे, उसे देख कर मुंह बिचका लेते थे! उसे द्घंमडी, पूंजीपति की औलाद और न जाने क्या-क्या सबके सामने कह देते थे।'
'वो तो यार बचपना था। पर हकीकत में मैं शायद उसे पसंद करता था।'-विप्लव ने सपफाई दी।
'पर यार, ये कैसे संभव है? तू और सविता एक साथ?' समर को अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था।
'सब कुछ संभव है मेरे यार। जब मैं गांव लौटा तो हमारा द्घरेलू बिजनेस भी मां की तरह बीमार-सा ही पड़ा था। उसे पैसे और नए आइडिया की जरूरत थी। आइडिया की मेरे पास कभी कमी नहीं थी, यह तो तू अच्छी तरह जानता ही है। पर पैसे कहां से आए। उसी समय सविता का मेरे लिए रिश्ता आया। न तो सविता को कोई मुझसे प्रॉब्लम थी और न ही मुझे सविता से। सो, हम दोनों ने तुरंत हां कर दी।' विप्लव ने कहा।
समर ने पूछा-'अब सविता क्या कर रही है?'
'कुछ खास नहीं। बस वैसे ही। बेटी और द्घर की देखभाल के बाद जो समय मिलता है, अपनी सहेलियों के साथ किटी पार्टी आदि में चली जाती है। कभी-कभी समाज सेवा कर लेती है। हमारी कंपनी जिन किसानों के यहां से ेश पफल खरीदती है, सविता उन किसानों के जानवरों की हरेक तरह की मदद के लिए एक हेल्पलाइन चला रही है। उसने जानवरों के लिए प्रसूति-गृह खोला है। आज शाम पांच बजे उसके 'मेटरनिटी होम पफोर एनिमल्स' का उद्द्घाटन है, जिसमें पच्चीस प्रतिशत सड़क पर बच्चा जनने वाले बेसहारा जानवरों के लिए बेड आरक्षित रखे गए हैं। बेड रिजर्व का आइडिया मेरा ही है।' विप्लव बता रहा था और जानवरों का प्रसूति-गृह सुनकर समर को कुछ अटपटा-सा लग रहा था।
विप्लव ने आगे कहा-'यार, सविता से जानवरों का दुख बर्दाश्त नहीं होता। बड़ी संवेदनशील है वह जानवरों के लिए। एक बार वह मेरे साथ कहीं जा रही थी तो सड़क पर एक गाय सबके सामने बच्चा पैदा कर रही थी। गाय के चारों तरपफ भीड़ थी। सविता इस नजारे को देखकर दो दिन रोती रही। उसको परेशान देख मैंने उसे सलाह दी कि तुम ऐसे जानवरों के लिए कुछ शुरू कर सकती हो। बस उसी दिन से वह अपना 'ऐनिमल ड्रीम' चला रही है। ऐनिमल ड्रीम में अभी केवल 'ऐनिमल हेल्पलाइन', 'प्रसूति-गृह' पर ही काम हो पाया है। आगे सविता के पास दो और नये यूनिक प्रोजेक्ट हैं, जिसमें पहला काम 'बेबी क्रैच' की तर्ज पर 'एनिमल ज्रैच' खुलवाना व दूसरा भारत में 'डॉग कल्चर' पर रिसर्च करवाना। हम आजकल में ही भारत के प्रत्येक सरकारी, गैर सरकारी दफ्रतरों में 'ऐनिमल क्रैच' खोलने का मांग-पत्रा भारत सरकार के श्रम मंत्राालय को भेजने वाले हैं। सविता और उनके ैंड्स को लगता है कि जब लोग अपने-अपने काम पर चले जाते हैं तो उनके पीछे उनके पालतू एनिमल एकदम अकेले और असुरक्षित हो जाते हैं। नौकर उनके लिए रखा गया खाना तक खा जाते हैं, साथ ही उनके साथ जानवरों से भी बुरा बर्ताव करते हैं। इसलिए हम चाहते हैं कि जिस प्रकार दफ्रतरों में बच्चों की देखभाल के लिए 'क्रैच' होता है उसी प्रकार हरेक दफ्रतर में ऐनिमल्स की देखभाल के लिए 'एनिमल ज्रैच' भी होना चाहिए। इस ज्रैच का पूरा डिमांड चार्टर मैंने ही बनाया है। सविता की ही मेहनत है कि एनिमल राईट पर काम करने वाले ग्रुपों में अब 'एनिमल ड्रीम' कापफी पॉपुलर हो गया है। कई सरकारी आला अपफसरों से लेकर नेताओं तक ने उसमें अपनी गहरी
दिलचस्पी दिखाई है। उनकी कृपा से 'ऐनिमल ड्रीम' को कापफी पफंड भी मिलने लगा है। हमारे दूसरे काम भी कापफी इन्टे्रस्टिंग हैं। 'ऐनिमल ड्रीम' के कार्यकारी सदस्यों का मानना है कि पप्पी से लेकर डॉग कल्चर पर हमारे ग्रुप द्वारा कार्रवाई जाने वाली रिसर्च इंसानों की दुनिया में तहलका मचा देगी। उस रिसर्च में हम मनुष्यों द्वारा डॉग्स की अस्मिताओं पर उठाए गए कुछ शाश्वत सवालों की चर्चा करेंगे। इस रिसर्च ग्रंथ में उनकी मनुष्य के प्रति वपफ़ादारी से लेकर उनके शौर्यपूर्ण इतिहास के साथ उनके मानवजनित
मनोवैज्ञानिक व्यवहार का बारीकी से अध्ययन किया जाएगा जैसे कि वे किस स्थिति में कितने एंगल पर क्यों और किस प्रकार अपनी दुम हिलाते हैं। उनके अंदर मौजूद इस आसाधारण कला के साथ उनकी अस्मिता पर हमले करने के लिए बने द्घृणित मुहावरे, पहेलियां, लोकोक्ति, किस्से-कहानियां व चुटकुलों पर पूरा एक अध्याय होगा। उनके भौंकने के अंदाज में आए परिवर्तन मसलन करारेपन से लेकर कुईकुयाने तक का भी वैज्ञानिक अध्ययन करेंगे। हमारी सविता मैडम अपने 'एनिमल ड्रीम' में खुश हैं और मैं अपनी नौकरी में। दोनों का बढ़िया चल रहा है।'
समर विप्लव से बातें करते-करते उसके व्यक्तित्व को भी गहराई से ऑब्जर्ब कर रहा था। उसने विप्लव को भेदी निगाह से देख कर कहा-'यार विप्लव, तू बिल्कुल बदल गया। कहां खद्दर के कुर्तों वाला विप्लव और कहां ये नवजीवन पफूड कंपनी के साथ-साथ दो-दो कंपनियों का एमडी।'
'पर तू बिल्कुल नहीं बदला। तू और प्रज्ञा जैसे थे वैसे ही रहे। 'डी-क्लास' और 'डी-कास्ट' होने की बात मैं ही ज्यादा करता था, पर असल में तुमने वाकई अपने आप को 'डी क्लास' और 'डी-कास्ट' कर लिया। विप्लव ने उदासी से लंबी सांस भरते हुए कहा।
तभी समर को कुछ याद आया-'अरे यार, तुझे नत्थू याद है, जिसने हमारी शादी में तेरे साथ बाल्टी भर मटन पकाया था? वही हमारे ग्रुप का मजदूर लीडर, जिसने पफैक्ट्री की हड़ताल में खूब डंडे खाए थे। और नौकरी से निकाल दिया गया था। तब से लेकर आज तक वह ऐसे ही भटक रहा है। प्रज्ञा बता रही थी कि उसकी बीवी आजकल बहुत बीमार चल रही है। प्रज्ञा ने उसके इलाज के लिए कुछ चंदा जमा किया है। आज वह दोपहर को द्घर आने वाला है। अगर तू थोड़ी देर रुक जाए तो उससे भी मिलता जा। वह जब भी यहां आता है, तुझे बहुत याद करता है।'
'नहीं यार, मेरा शेड्यूल बहुत बिजी है। मैं तुझसे ही बड़ी मुश्किल से मिलने का टाइम निकाल पाया हूं। इंटरव्यू के बाद एक बजे की फ्रलाइट से वापस जाना है। सविता के हॉस्पिटल का उद्द्घाटन है। कई जाने-माने नेता-अभिनेता आमंत्रिात हैं। मेरे न होने से वह डिप्रेस हो जाएगी। चल यार, कापफी देर हो गई। अब मैं निकलता हूं।' विप्लव ने मजबूरी जताई।
'अरे, मैं तो तेरे साथ बातों में इतना खो गया कि तुझे चाय-पानी सब पूछना भूल गया।' समर ने द्घड़ी देखी। बातों-बातों में चालीस मिनट किस तरह बीत गए, पता ही नहीं चला। वह चाय बनाने किचन में द्घुसा। पीछे-पीछे विप्लव भी चला आया। छोटी-सी प्यारी किचन केवल दो जनों के खडे़ होने लायक भर जगह। सापफ-सुथरे प्यार से संवारे दाल-मसालों से भरे डिब्बे-डिब्बियां। समर के साथ खडे़ होने की निकटता विप्लव को पुराने दिनों की याद ताजा कर गई। विप्लव भावुक स्वर में बोला-'यार, एक बात कहूं। तू सच में बहुत लक्की है। हमेशा तेरी सारी इच्छाएं पूरी हुई हैं। सुखी परिवार है तेरा।'
चाय पीकर विप्लव वापस चला गया। पर विप्लव के शब्द उसके दिलो-दिमाग में बार-बार कौंध रहे थे। ऊपर से खुश दिखने वाला, पैसों के ढेर पर बैठा, कंपनी के पॉवर को एन्जॉय करता विप्लव क्या अंदर से खुश नहीं है? क्यों? परिवार, पॉवर, पैसा और पॉपुलरिटी-चारों के अलावा एक इंसान को इससे अधिक क्या चाहिए? क्या खुद समर अपने जीवन में खुश है? आखिर नाखुश होने के कारण क्या हैं? रात को बेहद छोटी-सी बात, प्रज्ञा की अनुपस्थिति को लेकर वह इतना अति भावुक होकर क्यों सोचने लगा। मनचाहा जीवन-साथी, बच्चे, द्घर, नौकरी- सब कुछ तो है समर के पास। पर परिवार में ऐसा क्या है जो उसे खुशी देने के बजाय उसके दिल को चोट पहुंचाता है? प्रज्ञा के काम करने से उसे कोई विरोध नहीं है। वह द्घर में बैठ जाए, उसने ऐसा कभी नहीं चाहा? पर पिफर भी वह उसके प्रति अक्सर चिड़चिड़ा क्यों हो जाता है? उसे बाकी जीवन से निराशा क्यों होने लगती है? शादी से पहले जब दोनों दोस्त थे, तब उसे कभी निराशा महसूस तक नहीं हुई। दोनों ने एक दूसरे के साथ सार्वजनिक जीवन से लेकर नितांत व्यक्तिगत पल हंसी-खुशी गुजारे। शादी लोग एक-दूसरे के साथ सहयोग से जीने के लिए करते हैं। पर क्या वास्तव में एक दूसरे का सहयोग मिल जाना ही कापफी है। अगर मिल भी जाए तो हमें और अधिक सहयोग की चाह क्यों होने लगती है। सहयोग, पूर्ण समर्पण, गुलामी से भी ज्यादा की इच्छा! क्या इंसानी पिफतरत यही है कि सब एक दूसरे को अपनी-अपनी उंगलियों पर अपने अनुसार नचाएं और पिफर एक दूसरे के प्रति सच्चे प्यार का दम भी भरें।
सोचते-सोचते समर ने खुद को कठद्घरे में खड़ा पाया। उसके मन में अपने-आप सवालों की बरसात होनी लगी। उसे प्रज्ञा पर गुस्सा क्यों आया? क्या इसलिए कि प्रज्ञा द्घर पर नहीं थी? उसने प्रज्ञा में क्या देख कर शादी की थी? उसकी उन्मुक्त बौ(किता, उसकी ईमानदारी, सच्चाई... वह इन गुणों की बहुत कद्र करता था। अब उसे इन्हीं गुणों से क्यों चिढ़ है? शादी के बाद उसने प्रज्ञा के लिए किया ही क्या, सिवाय उसे द्घर में बांधने के? कितनी बार उसके साथ बाहर जाता है? कितनी बार उसके मन को समझने की कोशिश की है?
आसपास की चुप्पी में गूंज रहे ये सवाल एक-एक करके दीवारों से टकरा के वापस आ रहे थे और समर को द्घायल कर रहे थे। सोपफे में धंसा समर छत को एकटक निहार रहा था और उसकी आंखों से ग्लानि बहने लगी थी।
बाहर कमरे के मोटे परदों से लड़ कर धूप पूरी ताकत के साथ अंदर आने की कोशिश में थी।

Thursday, 12 September 2013

सुधीर मौर्य की कहानी - पीड़ा

वो बिस्तर पर बार-बार करवटें लेती है, सोने का प्रयत्न करती है किन्तु असफल होती है। उसकी आंखों में नींद नहीं है, नींद की जगह तो उसके चेहरे ने ले ली है, खुली आंखों से वो उसके ख्वाब देख रही है, आंखे बन्द करती है तो लगता है बिस्तर पे वो अकेली नहीं साथ में वो भी लेटा है, उसके बदन को सहलाते हुए और वो उसकी बाहों में पिघलती जा रही है। वो झट से आंखे खोल देती है, इधर-उधर नीम अंधेरे में नजर गड़ाती है, वो दिखाई नहीं देता है।
उसी का सहपाठी है, विदेश एम.ए. हिन्दी साहित्य, दोनों के सेम सबजेक्ट, सेम सेक्शन। पूरी यूनिवर्सटी में उसकी शायरी और कविता के चर्चे हैं, तमाम लड़कियां उस पर मरती है। पर वो उस पर मरता है। हां वो दोनों दोस्त है, पर वो उससे दोस्ती से कुछ ज्यादा मांगता है। आज उसकी किताब में, एक पर्ची मिली थी, कुछ पक्तियां लिखी थी शायद कविता थी- सीमा जी- सेक्सी तू सेक्सी सरापा तू सेक्सी.....
पढ़कर रोम-रोम सिहर जाता है सीमा का, जरूर विरेश ने रखा होगा उसके बाद सीमा का मन यूनिवर्सटी में नहीं लगता है। बेचैन होकर वो उठती है किताब खोलकर वो पेज निकालती है, वापस पढ़ती है- सेक्सी तू सेक्सी सरापा तू सेक्सी
उसकी आंखे अपने आप बंद हों जाती है, अजब सी गुदगुदी वो महसूस करती है। विरेश को बचपन से जानती है सीमा, बचपन न सही टीनऐज से तो जानती है। नाइन्थ से दोनों साथ पढ़ रहे है, विरेश को बचपन से शौक है कविताएँ लिखने का पढ़ने का। उस पर आरोप है, वो बल्गर कविताएँ लिखता है। सीमा के पिता भी कवि है, प्रतिष्ठित कवि और वो विरेश को कवि नहीं मानते। सीमा वापस किताब खोलती है बेड पर आकर अधलेटी स्थिति में वो कविता की आगे की लाइने पढ़ती है।
तेरी आंखे है कजरारी तेरी बाते प्यारी-प्यारी लगती आग का है गोला तू जब बांधती है साड़ी
सीमा की वापस आंखे बन्द हो जाती है। वो याद करती है, यूनिवर्सटी के पिछले साल का वार्षिक समारोह उसने बी0ए0 फाइनल में टॉप किया था और विरेश किसी तरह से पास हुआ था। उस दिन सीमा ने साड़ी बांधी थी फिरोजी रंग और उसी रंग का स्लीवलेस ब्लाउज। उसने मैंचिग के सैंडल पाव में और हांथो में बैंगल पहने थे।
उस दिन विरेश उसे बार-बार देख रहा था, करीब आ रहा था और बगल से निकलने के बहाने उसके शरीर से अपने शरीर को टच कर रहा था। उस दिन विरेश भी कविता पाठ करता है-
स्नेह तुम्ही से मेरी प्रिया तुम मन को मेरे देखो तुम
फंक्शन के दौरान जब सीमा चाय पी रही थी तो उसे अकेला देखकर विरेश उसके पास आ गया था, और उसे ये बोलते हुए कि वो साड़ी में बहुत खूबसूरत लग रही हो, बेहिचक अपने प्यार का इजहार कर दिया था। -कुछ देर सीमा चुप रह गई थी, तो विरेश ने उसके गाल पर आई एक जुल्फ की लट संवार दी थी। -सीमा फिर भी चुप रही थी, तभी वहां उसकी कुछ सहेलियां आ गई थी वो विरेश इधर-उधर की बातें करने लगा था। सीमा को विरेश की ये डेयरिंग थोड़ी-थोड़ी अच्छी लगी थी, पर वो थोड़ा सा डर भी गई थी। सीमा, विरेश के हाथ का स्पर्श अपने गाल पर याद करके सिहर जाती है, वो एक तकियो को सीने से लगा कर और एक तकिये को अपनी मांसल जांघो के बीच रख कर सोने की कोशिश करती है। उसे महसूस होता है मानो, उसके सीने से विरेश चिपका हुआ और उसने अपनी टांगो को उसकी जांघो के बीच फंसा रखी है। ये महसूस करते ही उसके होंठांे पर मादक हंसी तैर जाती है, और मुस्कराते हुये दोहराती है-
सेक्सी तू सेक्सी सरापा तू सेक्सी
आज सीमा को यूनिवर्सटी जाने की देर हो गई है, सुबह देर से आंख खुली थी। रात देर से जोे सोई थी वो। आदमकद आईने के आगे खड़े होकर बाल बनाते हैं वो, हल्के घुंघराले काले बाल कांधे तक बिखरे हुए। बाल बनाते हुए वो गुन गुनाती है-
सेक्सी तू सेक्सी सरापा तू सेक्सी
-मां उसे आवाज देती है-सीमा आ बेटे नाश्ता तैयार है। -सीमा शायद सुन नहीं पाती है या सुन कर अनसुना कर देती है। वैसे ही वो कविता की लाइने गुनगुनाती रहती है। कोई पीछे से आकर उसके कांधे हिला देता है, वो चौक कर पलटती है। सामने मां है, पूछती है-क्योंरी सीमा आजकल तेरा ध्यान किधर रहता है, वे पलट कर वापस आईना देखते हुए बोलती है, कुछ नहीं मां तू चल मैं आती हूं।
आज उसे विरेश कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा है, वैसे तो वो उसे यूनिवर्सटी आते ही दिखाई दे जाता है मानो वो उसका ही इन्तजार करता रहता है, वो यूनिवर्सटी के हॉस्टल में रहता है सो कभी लेट नहीं होता। वो चारों तरफ निगाहों से ढूंढती हुई क्लास तक आती है। उसकी नजर ग्रीन बोर्ड पर जाती है। जहां सफेद चाक से लिखा था। -दिल ने किया हमनवा एक बिरहमने बुत को- पढ़कर कर सीमा थोड़ा लजाती है, क्लास में ओर भी स्टूडेन्टस बैठे हैं। सीमा अपने होंठों में अपना दंउ लेती है-सीमा मिश्रा, वो दो तीन बार दोहराती है-सीमा मिश्रा। हां वो भी तो ब्राह्मण है तो क्या विरेश ने उसके लिए लिखा है। हां सीमा पहचानती है विरेश की राइटिंग को, क्या सुन्दर लिखता है वो। विरेश, क्लासरूम में आता है। हाफ बांह का कुर्ता और पायजामा पहना है उसने, हां आज दिखने में कवि लगता है। वो क्लास में पीछे बैठता है और सीमा आगे। अपनी सीट की तरफ जाने से पहले वो सीमा के पास रूकता है। उसकी किताब पर हाथ रखते हुए बोला, कविता पढ़ी थी सीमा। सीमा के हृदय में गुदगदी होती है पर वो चुप रहती है। विरेश गुनगुनाता है- सेक्सी तू सेक्सी सरापा तू सेक्सी
-विरेश जाकर अपनी सीट पर बैठ जाता है तो सीमा की धड़कन थोड़ी नियन्त्रित होती है। वो विरेश की डेयरिंग पर अक्सर डर जाती है। आज यूनिवर्सटी में थोड़ा हंगामा हो जाता है। ग्रीन बोर्ड पर लिखी कविता की लाइन- दिल ने किया हमनवा एक बिरहमन बुत को- सारी यूनिवर्सटी में चर्चा कि विषय है। चर्चा इस बात की नहीं कि कविता में शास्त्रीयता है या नहीं, चर्चा इस बात की है, ब्राह्मण की लड़की को कोई नीची जात वाला हमनवा कैसे कर सकता है। हां विरेश, नीची जाति का है। विरेश-विरेश गौतम। सीमा को पता चलता है, तमाम अगड़ी जात के प्रोफसरांे के ये कृत्म भाया नहीं हैै और वो लामबन्द हो रहे है। सीमा थोड़ी चिन्तित होती है। विरेश के लिए, उसकी चिन्ता विरेश के लिए क्यों है वो नहीं समझ पाती है। क्या लगता है आखिर विरेश उसका। उधर, शेडयूल कास्ट के लोग भी लामबन्द हो रहे है। विरेश के फेवर में, वो विरेश को न डरने की सलाह देते है। विरेश, उन बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं देता है। उसे लगता है उसे ये फील होता है वो सीमा को प्यार करने लगा है। उसने तो सीमा को प्रपोज भी किया है, पर उसने अब तक उसे कोई जवाब नहीं दिया है। विरेश थोड़ा निराश होता है। ये सोचकर उसे थोड़ी तसल्ली होती है सीमा ने उसे मना भी तो नहीं किया था।
आज घर में सीमा को कुछ आंखे चुभती हुई लगती है। उनमें दो आंखे उसके पिता की है, जो यूनिवर्सटी मंे हिन्दी के प्रोफेसर हैं, दबंग, लब्ध प्रतिष्ठित कवि। उनकी दबंगई उनकी कविताओं मंे आसानी से देखी जा सकती है। और दो आंखे उसके भाई की हैं जो एक प्रकाशक है, वो भी दबंग। आज तक उसके प्रकाशन से किसी निम्न जाति के लेखक की कोई पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई है। पिता, सीमा को देखकर कड़क कर अपनी पत्नी को बोलते हैं, जरा समझा दो छोकरी को, अपने पांव संभाले, वरना वो अपने पांव पर चल न सकेगी। सीमा देखती है उसकी भाई अपनी बांहे चढ़ाता है, जिसका अर्थ वो ये लगाती है, मतलब वो पिता की कही बात का सर्मथन कर रहा है।
सीमा चुप रहती है और अपने कमरे में आ जाती है। निढ़ाल बिस्तर पर ढ़ेर हो जाती है। कुछ पलांे बाद उसे महसूस होता है उसके गाल गीले हो रहे है, हथेली ले जाकर देखती है तो कुछ बंूदे वहां आंखों के कोने से निकल कर वहां ढलक रही थी।
वो अश्रु थे, पर क्यों किसके लिए।
सीमा खुद अचम्भित है, अपनी आंखो के इस कृत्य पद;चंतद्ध। क्यों आखिर क्यों आंखो से उसकी आंसू निकल पड़े है। क्या विरेश के लिए। क्या ये सोचकर कि उसका अहित होने वाला है उसकी आंखे रो पड़ी हैं। वो विरेश से प्रेम करने लगी है क्या, हां उस दिन वो बोल रहा था ऐ सेक्सी एक बार आई लव यू बोल दे। सीमा के मन में विरेश की बात से बहुत गुदगुदी होती है। उसके गुलाबी अधरों पर मुस्कान तैरना चाहती है पर वो रोक लेती है। उसे शांत देखकर विरेश उसके हाथ पकड़ लेता था। उसकी इस डेयंरिग पे सीमा हड़बड़ा जाती है। नजरे नीची करके बोलती है विरेश जी हाथ छोड़ दीजिए, मैं आपकी एक अच्छी मित्र हूं। -फिर बोल दो न आई लव यू-विरेश उसके हाथ पर अपने हाथ की सख्ती बढ़ाते हुए बोलता है। सीमा को तनिक दर्द होता है, पर उसे ये दर्द बड़ा भला लगता है। तभी सीमा की सहेली मीता वहां आ जाती है, तो विरेश उसका हाथ छोड़ देता है। मीता थोड़ी चंचलता से विरेश से कहती है, क्या यार विरेश ऐसी ही गोल्डन नाईट को सीमा का हाथ छोड़ देंगे क्या। मीता की बात पर विरेश हंस देता है और सीमा उसको तो लाज से कान की लौ लाल हो जाती है। सीमा सोचती है नहीं वो प्रेम नहीं करती है विरेश से और अगर करती भी है तो वो उससे कभी बोल नहीं सकती वो जानती है उसे समाज के बनाये अंधे तिलिस्म में ही जीना है।
आज यूनिवर्सटी में बड़ा बवाल हुआ है, और शाम होते-होते वो अपने कमरे में और विरेश हॉस्पिटल में होता है। आज सुबह एम.ए. फर्स्ट ईयर हिन्दी साहित्य के क्लास के ग्रीन बोर्ड पर लिखा होता है- ‘‘दिल ने किया हमनवा एक बिरहमने बुत को तो कौम के फरजन्दो की नजरें बदल गई’’ पढ़ कर सीमा लरज जाती है। मीता बताती है उसे कल शाम कुछ लोगों ने, विरेश को डराया-धमकाया है और तुमसे बात न करने की सख्त हिदायत दी है। विरेश क्लास रूम में आता है, सीमा के पास रूक कर बोेलता है, हैलो सेक्सी आई लव यू- आई लव यू बोलने के समय विरेश की आवाज थोड़ा तेज हो जाती है और वो शब्द सारे क्लास में गूंज जाते हैं। पूरा दिन सीमा, विरेश से बचने का प्रयास करती है। वो जानती है विरेश की डेयरिग को, वो जरूर उसे छेड़ेगा। ये बात अलग है विरेश का छेड़ना उसे अब बहुत भला लगता है।
सीमा देखती है आज पूरी यूनिवर्सटी में तनाव है। लोग जगह-जगह, झुन्ड बना कर बातें कर रहे है। वो इस तनाव के कारण का अंदाजा लगाती है, जरूर उसके और विरेश के बारे में बाते हो रही होंगी। सीमा थोड़ा सहम जाती है वो आज घर जल्दी आ जाती है, उसके पिता और भाई दोनों पे समय घर पर नहीं है। मां की दी चाय तिपाई पर पड़े-पड़े शरबत हो जाती है। सीमा इस वक्त अपने होश-ओ-हवाश में नहीं है। मीता के फोन ने उसे तोड़ कर रख दिया है। आज शाम यूनिवर्सटी के बाहर कुछ लोगों ने अचानक विरेश पर हमला कर दिया है, उसे काफी चोटे आई हैं, और उसे पास के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया है।
उसका मन विरेश को देखने का करता है, ऐसा कर नहीं पाती है। कहीं न कहीं उसके मन में अपने पिता और भाई का डर बैठा है। वो जानती है ये कृत्य किसका है।
खाने की मेज पर आज रात उसके पिता और भाई ठहाके लगाते है, ये ठहाके सीमा के हृदय में नश्तर की तरह चुभते है, वो मां से तबियत खराब होने की बात करके खाने की मेज से उठ जाती है। उसके कानों में पिता की आवाज सुनाई पड़ती है, अब अगर वो सीमा से मिला तो दुनिया से उठ जायेगा। सीमा झुरझुरी लेती है। रात भर बिस्तर पर वो करवटंे लेकर बिताती है, विरेश के बारे में सोचती है। उसके दर्द के बारे में अदांजा लगाती है। आज उसे यूनिवर्सटी अधूरी लगती है। विरेश नजर नहीं आता है, कैसे आयेगा वो तो अस्पताल में है। क्लास का ग्रीन बोर्ड आज सूना पड़ा है। लंच टाईम में मीता उससे बोलती है, चल विरेश को देखने चलते है। सीमा मनाकर देती है। दो कारण है विरेश के पास न जाने के एक तो वो सोचती है नजर कैसे मिलायेगी विरेश से और दूसरा पिता और भाई का डर सताता है उसे।
मीता हॉस्पिटल जाती है, तो सीमा घर वापस आ जाती है। वो मीता के फोन का इन्तजार करती है, जानना चाहती है विरेश के बारे में। बार-बार मोबाईल उठा कर चेक करती है उस पर उसमंे कोई फोन कॉल नहीं है। सारी रात सीमा आंखो में काटती है, आज सीने से तकिया लगा कर, जांघो के बीच तकिया रखकर भी नींद नहीं आती है। मीता उसे फोन नहीं करती है। सीमा सारी रात आंखो में काटती है। वो इन्तजार करती है रात ढ़लने का, सवेरा होने का। उसे जल्दी है यूनिवर्सटी जाने की, विरेश के बारे में जानने की। वो एक-दो बार मीता को फोन करती है, पर उधर से कोई जवाब नहीं मिलता है।
आज यूनिवर्सटी में रोज जैसी चहल-पहल नहीं है, कल की घटना का असर साफ दिखाई पड़ता है। आज यूनिवर्सटी में बहुत सी आंखे उसे चुभती हुई महसूस होती है। मानो कह रहीं है वही अपराधी है विरेश के इस हाल के लिए। वो मीता को खोजती है पर वो नजर नहीं आती है। सीमा का मन क्लास में नहीं लगता है।
वो लाइर्बेरी में आ जाती है, उसे किताब सबमिट करनी है। पुस्तक जमा करने से पहले वो उसे चेक करती है तो उसमें से एक कागज का पुर्जा उसे मिलता है। उसकी लिखावट को पहचानती हैं वो विरेश ने ही लिखा है। सीमा वहीं लाइब्रेरी में बैठकर वो लिखावट पढ़ती है, वो एक छोटी सी कविता है। जिसका अर्थ ये है, नायिका, नायक को इसलिए तिरस्कृत करती है क्योंकि वो निम्न जाती का है। कविता पढ़कर सीमा की आंखे डबडबा जाती है। शाम ढ़लते-ढ़लते और सीमा के यूनिवर्सटी से निकलने के समय पर उसे एक और खबर मिलती है। यूनिवर्सटी के मैनेजमेन्ट काउंसिल ने निर्णय लिया है विरेश को यूनिवर्सटी से निकालने का। वजह में कहा गया कि विरेश, यूनिवर्सटी का माहौल बिगाड़ रहा है। वो पढ़ाई से ज्यादा समय लड़कियों को फ्लर्ट करने में लगाता है। इन बातों का ताकीद उसके अंकपत्र भी करते हैं। सीमा के लिए ये खबर नहीं वज्रपात है। उसको अपना दिल बैठता हुआ महसूस होता है और टांगे लरजती हुई। उसके घर का माहौल आज शाम खुशनुमा है। पिता और भाई किसी बात पे ठहाका लगा रहे हैं। ये ठहाके सीमा के कान में पिघले शीशे की तरह उतरते हैं। वो डिनर में मुश्किल से एक चपाती खाती है, वो भी उसके हलक से नहीं उतरती है। किसी तरह से वो उसे पानी के साथ हलक से नीचे उतारती है। फिर वो पिता और भाई की नजर बचा कर अपने कमरे में आ जाती है। आज रात भी नींद सीमा की दुश्मन बनी हुई है। सीमा सोचती है जिंदादिली की ये सजा मिली है विरेश को। जरूर इस सजा की वजह खुद सीमा है। वो विरेश के सारे खतो को ढूढंती है जो विरेश ने कोई न कोई बहाने से सीमा की किताब में रखे थे। सीमा बारी-बारी से सारे खत पढ़ती है और आखिरी खत पढ़ते-पढ़ते उसे लगता है, वो विरेश को प्यार करती है, उसी को चाहती है। वो होंठों में बोलती है-विरेश आई लव यू। यही सेनेटेन्स को कई बार दोहराती है और लजाती है और एक निर्णय लेती है।
दो महीने बीत चुके है, विरेश स्वस्थ हो गया है, पर टूट गया है, एक भाड़े के कमरे में रहता है। वो बच्चो को ट्यूशन पढ़ाने लगा है। सीमा, उसका एड्रेस मीता से हासिल कर लेती है और एक शाम विरेश के कमरे तक पहुँच जाती है। विरेश उसे अपने कमरे पर देखकर सरप्राइज हो जाता है और सीमा उसके गले में बाहें डाल कर आई लव यू बोलकर उसे और सरप्राईज कर देती है।
तमाम गिले शिकवे के बाद जब उस सुहानी शाम सीमा प्रथम अमिसार की पीड़ा झेल रही थी, उस समय उसे लग रहा था, वो अपने पिता और भाई से विरेश की पीड़ा का बदला ले रही है।
सुधीर मौर्य के कहानी संग्रह 'अधूरे पंख' से                                                                                                                                                                    Sudheer Maurya 'Sudheer' Ganj Jalalabad, Unnao 209869

मनीषा कुलश्रेष्ठ की कहानी - उल्का

“आज तुम होते तो! होगे तो ज़रूर․․․ कहीं आस पास!”
देश के सर्वश्रेष्‍ठ चित्रकार का यह सम्‍मानित पुरस्‍कार लेते हुए 65 वर्षीया उमा सहाय की कांपती उंगलियां प्रशस्‍ति-पत्र को सहला रही थीं। सम्‍मान में ओढ़ाया गया पश्‍मीना शॉल उनकी झुकी जाती देह से फिसल गया। पास खड़े एक युवक ने फिर ओढ़ा दिया․․․ वह चुपचाप मंच से उसी युवक का सहारा ले उतर आईं। मन सघन भावों से अवरुद्ध हो चला था। आंखें नमी से झिलमिल कर रही थीं, देश के राष्‍ट्रपति के हाथों․․ इतना बड़ा प्रतिष्‍ठित सम्‍मान․․․ ऑडिटोरियम तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज रहा था। एक साथ उन पर बरसीं कैमरे की फ्‍लैशलाइट्‌स से उनकी आंखें बन्‍द हो रही थीं। लेकिन वे तो अतीत की एक गली के मुहाने पर आकर ठिठक कर रुक गई थीं।
समारोह समाप्‍त होते ही वे हॉल से बाहर भी न निकल सकी थीं कि पत्रकारों की भीड़ और टीवी चैनलों के बहुत सारे माईक उन्‍हें घेर चुके थे। पत्रकारों के सवालों के जवाब में क्‍या कहें, कुछ सूझ नहीं रहा था।
“उमा जी, इस पुरस्‍कार का श्रेय․․․।”
“अपने उस आराध्‍य को!”
“आपकी महान कला की प्रेरणा․․․?”
“ वही आराध्‍य!”
“रंगों व आकृतियों का यह संयोजन․․․?”
“प्रकृति और जीवन में उसी आराध्‍य की असीम कृपा का परिणाम․․․।”
“आपके आराध्‍य कौन हैं?”
एक पल की झिझक के बाद बोली, “आराध्‍य! इस निस्‍सीम में फैला है वह․․․․ चाहे उसे कृष्‍ण मान लें या शिव!”
“आधुनिक चित्रकला में बढ़ती नग्‍नता․․․”
इस सवाल के जवाब में सवाल ही था उसके पास कि� ‘नग्‍नता किसे समझते हैं आप लोग, प्रकृति ने कौन से आवरण ओढ़ रखे हैं?' लेकिन․․․ बड़े समारोह की थकान, पुरस्‍कार पाने की प्रसन्‍नता, ढेर सी बधाइयाँ लेते लेते सांस चढ़ आई थी․․․‘इस विषय पर फिर कभी बात करेंगे हम, कभी समय लेकर घर आना।' उस युवा महिला पत्रकार के कन्‍धे थपथपा कर हांफती हुई अन्‍य पत्रकारों से क्षमा मांगती हुई वह कार में बैठ गइर्ं। ड्राइवर कार ले कर चल पड़ा। ठण्‍डी हवा का बासन्‍ती झौंका, सड़क पर खिले गुलमोहर, पलाश और अमलतास․․․ आवारा उड़ते पीपल के भूरे पत्‍ते और दूर तक फैले आसमान की उत्‍पे्ररणा पाकर, उमा ने मन की एक छोटी सी खिड़की खोली․․․ वहां से कहीं मुड़ कर अतीत के एक संक्षिप्‍त अध्‍याय की पतली, नीचे को उतरती गली जाती थी․․․ वहीं से आवाज़ दी उसने ․․․
“सुन रहे हो! इतना सन्‍नाटा क्‍यों है? क्‍या तुम खुश नहीं?”
“․․․․․․․․․”
“अरे! तो तुम थे वहां!” वह हँसी। “हां पत्रकार चक्‍कर में तो पडे़ होंगे, बुढि़या सठिया गई है․․․ ज्‍़यादा ही कुछ स्‍पिरिच्‍युअल․․․ हर बात का जवाब आराध्‍य! क्‍या करती, पूरे समय ख्‍़याल बना रहा आपका।”
“․․․․․․․․․”
“तो और कौन है? हाँ, ․․․तुम ही तो मधुसूदन! और कौन?”
“․․․․․․․․․”
“चलो सेलेब्रेट करें। मधु, तुम्‍हारे जाने के बाद तुम्‍हारी मनपसन्‍द प्‍लम वाइन को हाथ तक नहीं लगाया मैंने․․․ चलो भले ही चल कर अपने उसी स्‍टूडियो में गिन लो अपने उस चांदी के सिगरेट केस में पूरी आठ सिगरेट्‌स हैं․․․। बस! तुम्‍हारे जाने के बाद मन ही नहीं किया उन्‍हें पीने का। हां, वैसा का वैसा ही रखा है उस स्‍टूडियो को मैंने․․․ एक चीज़ इधर से उधर नहीं की। तुम्‍हारा उस शाम जामुनी रंग में डुबोया ब्रश वैसा का वैसा रखा है। तुम्‍हारी मखमली स्‍लिपर․․․ उस ज़मीन पर बिछे गद्‌दे के पास यूं ही उतरी हैं․․․ कि हर बार मुझे लगता रहा कि तुम थक कर खीजकर ․․․ पार्टी से लौटते में यामिनी से झगड़ कर आओगे और जूते उतार कर इन्‍हें पहन कर इस बेतरतीब स्‍टूडियो में चहलकदमी करते-करते पूरा किस्‍सा बयां करोगे और फिर इन्‍हें उतार कर सैटी पर बैठ जाओगे। मैं अनमनी सी सुनती रहूंगी․․․ फिर देर बाद तुम्‍हें कुछ याद आएगा․․․
“क्‍या बना रही हो?”
“बसे ऐसे ही ज़रा․․․”
“ज़रा हटो तो पूरा दिखे। ․․․अं अच्‍छा है, रंग भी ठीक हैं․․․ पर कहीं यह नकल सी है किसी पहले देखी पेन्‍टिंग की․․․ उमा ․․․ कुछ तो ओरिजनल․․․
“․․․․․․․․․”
“बुरा मान गई न! भई, ऐसा कुछ बनाओ कि लोगों को नाम पढ़ने की ज़रूरत ही न पड़े वैसे ही कह दें ․․․ ओह उमा सहाय की․․․। तुम मेहनत नहीं करना चाहतीं․․․”
“मधु․․․ बस यह बता दो कि किसी पेन्‍टिंग की नकल है यह․․․․।” उसने बुरी तरह खीज कर कहा।
“वो तो याद नहीं पर पिछली किन्‍हीं एक्‍ज़ीबिशन में․․․ पर बुरा क्‍यों मान रही हो․․․?
“इस पेन्‍टिंग को आपने इसकी स्‍केचिंग से बहुत पहले से देखा था, बल्‍कि खाली कैनवास हम साथ लाये थे तभी आपसे डिसकस किया था इसके बारे में! तब तो बड़ा कह रहे थे ‘ओरिजनल है।'
“ए․․․ मज़ाक․․․”
“झूठ! यह मज़ाक नहीं था। आप दरअसल ध्‍यान ही नहीं देते मेरी पेन्‍टिंग्‍स पर․․․। आप बस अपनी अधूरी पेन्‍टिंग्‍स को मुझसे पूरा करवाने का अधिकार भर समझते हो और सारी दुनिया आपको सराहती है। आप हो ही बहुत क्रुएल! यामिनी जी ठीक ही झगड़ती रही हैं, आपसे। हमें क्‍या करना है अपने आपको प्रतिष्‍ठित करके? हम अमेचर्स हैं। आप ही को मुबारक कला का व्‍यवसाय!”
“लड़की, तुझे क्‍या पता तेरे लिये कितना बड़ा सपना देखा है मैंने।”
“हंऽह! पता है, पता है!” कह कर मैं ज़ोर ज़ोर से कॉफी फेंटने लगती।
कभी-कभी अपनी किस्‍मत पर गुस्‍सा आता था कि तुम मिल कहां से गये? मुझसे ये नामालूम से तार जोड़ ही क्‍यों लिये? कितना व्‍यवसायिक सा था रिश्‍ता हमारा․․․ व्‍यक्‍तिगत किस तरह बन गया? सीधी-सीधी नाक की सीध में अपनी जि़न्‍दगी का लक्ष्‍य तय कर जिये जा रही थी मैं! सुबह एक एडवर्टाइजिंग ऐजेन्‍सी में बतौर आर्टिस्‍ट काम करते हुए जे․ जे․ आर्टस कॉलेज की शाम की डिप्‍लोमा कक्षाओं में ‘आधुनिक चित्रकला' पढ़ा करती थी। तुम तो बहुत प्रतिष्‍ठित कलाकार थे और कभी कभी लैक्‍चर्स देने के लिये तुम्‍हें अतिथि के तौर पर बुलाया जाता था और तुम हमें बारीकियां सिखाते थे। कई बार तुम अपनी मीन मेख और साफगोई से हमारी नौसिखिया कलाकृतियों पर कोई तंज कर हमें सहमा देते थे। कितने अहंकारी लगते थे तब। पर सच यह था कि तुममें बनावट नहीं थी। तुमसे अपनी कला की बारीकियां भी छिपती नहीं थीं․․․ छोटी-मोटी टिप्‍स की तरह अपनी कला के गुर हममें यूं ही बांट जाया करते थे, उदारता से।
मुझे आज भी याद है जब, हम डिप्‍लोमा के छात्रों की कला प्रदर्शनी लगी थी․․․ कॉलेज ही में․․․ तुम मुख्‍य अतिथि थे। हमारे दिल कांप रहे थे․․․ न जाने क्‍या-क्‍या सुनने को मिलेगा․․․ क्‍या-क्‍या कमियां निकाली जायेंगी․․․ लेकिन तुमने हमारे वरिष्‍ठ सहपाठियों की तुलना में हमें बेहतर बताया था। हमारे बैच को सराहा था कि नई संभावनाओं और नये प्रयोगों और पूरी तैयारी के साथ चित्रकारों की नई फसल सामने आई है। खास तौर पर तुम्‍हें मेरी पेन्‍टिंग ‘सद्यः स्‍नात' पसन्‍द आई थी। पेन्‍टिंग से भी कहीं ज्‍़यादा ‘शीर्षक' पसन्‍द आया था। तुम मुस्‍कुराये थे, यह शीर्षक पढ़कर।
मेरे लिये नया था तुम्‍हारा शहर, बल्‍कि महानगर! मैं एक छोटे शहर की․․․ बल्‍कि एक चौड़े पाट वाली नदी के किनारे बसे बेतरतीब शहर की लड़की थी। जहां कला भी थी, संस्‍कृति भी थी․․․ मगर अपने पुराने और सौंधे स्‍वरूप में, चित्रकला तो एक परम्‍परा की तरह शहर की नब्‍ज़ में मौजूद थी। चित्र हिस्‍सा थे जीवन का। चाहे वह गोबर से लिपे आंगनों में रची अल्‍पना हो, मंदिरों की दीवारों पर बनी राधाड्डष्‍ण की लीलाओं के चित्र हों, गौशालाओं के आगे गोबर की बनी सांझियों में उकेरी आकृतियां हों, फूलों-गुलालों से बनी मंदिरों की रंगोलियां हों, या औरतों की देह पर बने गोदनों में उड़ते नीले तोते हों। चित्रों में ही हम सांस लेते थे, चलते थे, जीते थे।
चित्र परछाइयां थे हमारी। हर तीसरे दिन तो कोई तीज त्‍योहार होता है ब्रज में, हर तीसरे दिन मां का आँगन लिपता और चावल के आटे के एपन से मां की सुघड़ उंगलियां भीगतीं और मिनटों में वे कमल-हंस की अल्‍पना उकेर देतीं, हर पांचवे दिन ब्‍याह-सगाई वाले घर से पिताजी को बुलावा आता बारात के फड़ के चित्र बनाने हैं। द्वारा पर, दीवार पर, ग्‍वाड़ी की गोठ और गोखड़ों पर।
वहीं से मैं अपनी कला की सुघड़ बारीकियां, महलों- हवेलियों, मोर, हिरणों, बाघों के पेन्‍सिल स्‍केचेज़ और मिनिएचर किशनगढ़ शैली की सुनहली-रूपहली रेखाएं, पतले ब्रशेज, तरह-तरह की पारम्‍परिक पीतल की कलम और कलात्‍मकता लेकर आई थी कृष्‍ण - राधा के चित्रों की, पर नकार दी गई थी तुम्‍हारे शहर में। वहां परम्‍पराओं, बारीकियों का क्‍या काम था? वहां नित नये प्रयोगों को, चित्रों की नई परिभाषाओं को, आड़े-तिरछे चित्रों और अजीबों गरीब रंग संयोजनों में रचे बिम्‍बों को ‘चित्रकला की सार्थकता' कहा जाता था। तब मुझे लगा था कि अरे! मैं तो कुछ नहीं जानती चित्रों के बारे में । मुझे महसूस हो गया था, कि मुझे सब कुछ नये सिरे से सीखना होगा․․․। फिर से शुरुआत सीखने की!
तब काम ढूंढ़ा गया, एक कमरे का घर ढूंढ़ा गया या यूं कहो अपनी सारी जमा-पूंजी, पापा का भेजा पैसा लगा कर एक किराये के कमरे को घर बना लिया गया था। फिर जी तोड़ कोशिशों के बाद दाखिला मिला जे․ जे․ आर्ट्‌स कॉलेज की शाम की क्‍लासेज़ में। वही एक कमरे का घर मेरा घर- स्‍टूडियो दोनों था। फर्नीचर के नाम पर कुछ भी तो नहीं था एक कुर्सी तक नहीं! नीचे ही गद्‌दा बिछा कर सैटी- सी बना ली थी। हाँ, कई कैनवास, ईज़ल, रंग-ब्रश, पेन्‍सिलें, मोटी पतली कलमें, बड़ी बड़ी कलर टे्र ज़रूर उस कमरे को घेरे रहते थे।
वह अजीब-सा दिन था, जब तुम्‍हारा मेरे घर आने का सबब बना था। मैं एक प्रिन्‍ट एडवरटाईज़मेन्‍ट के लिये किशनगढ़ शैली में राधाकृष्‍ण का एक प्रणय चित्र बना रही थी। मुझे याद है, जाती हुई गर्मियों की दुपहर थी, अलसाई धूप तेंदुए सी, धब्‍बों-धारियों के साथ में क्‍लासरूम में पसरी थी। मानसूनी नमकीन हवाएं चित्रों के रंग सूखने ही नहीं दे रही थीं। मेरे सारे सहपाठी लंच बे्रक के लिये कैन्‍टीन गये हुए थे। मैं ठहर गई थी क्‍लास मेें ही, आज ही यह चित्र पूरा करके अगले दिन तक पूरी सीरीज़ ‘नवरोज़ एडवर्टाइजिं़ग एजेन्‍सी' में देकर आनी थी․․․ नहीं देती तो․․․․ कमरे का किराया और नया कैनवास खरीदने के पैसे कहां से जुटाती? तभी न जाने कब धूप के धब्‍बों पर चल कर तुम चले आये थे। चुपचाप मेरे पीछे आकर खड़े हो गये थे, सांस रोक ली थी क्‍या? मुझे भान तक नहीं हुआ था।
“यह तो तुम यहां नहीं सीखती हो!”
मैं हड़बड़ा गई थी। उठ खड़ी हुई थी। ब्रश छिटक कर दुपट्‌टे में उलझ गया था। नीले-हरियाले रंग बिखर गये थे, दुपट्‌टे की सफेद-स्‍याह ज़मीन पर।
“जी․․․ सर ․․․ जी नहीं।”
“फिर, कहां से सीखी यह शैली?”
“मथुरा․․․ अपने पिता से․․․।”
“वाह․․․”
कमरे में उमस बढ़ गयी थी, जब तुम चित्र को और करीब से देख रहे थे। मैं सफाई देने लगी।
“सर, मुझे यह सीरीज़ कल सुबह तक पूरी करनी है, और मुझे वक्‍त नहीं मिल पा रहा था․․․ इसलिये क्‍लास में․․․।”
“कहाँ देनी है?”
“सर! उस एडवरर्टाइजि़ग एजेन्‍सी में जिनका मैं बतौर आर्टिस्‍ट काम करती हूँ।”
“क्‍या ऐसी और भी हैं।”
“इस सीरीज़ में तो चार और हैं․․․ पर मिनिएचर्स में डोली, शिकरा बाज़, नूरजहां, दारा शिकोह, महाराणा प्रताप वगैरह और भी बने रखे हैं।”
“दिखाओगी?”
“कल ले आऊंगी सर।” तुम्‍हारी उत्‍सुकता पर मुझे आश्‍चर्य हुआ था।
“आज ही दिखा दो।”
“․․․․․․․․․”
“दिखा भी दो भई।”
“सर! घर मेरा दूर है, घाटकोपर․․․ वहां से जाकर लाना․․․।”
“लाना क्‍यों․․․ वहीं चल कर देखते हैं।”
मैं हतप्रभ थी। कुछ समझ नहीं आ रहा था। ऐसा क्‍या था इन पारम्‍परिक चित्रों में? ये तो अपने स्‍थानीय कलाकार पिता से बचपन से सीखी थी। मन्‍दिरों के बाहर ऐसी पेन्‍टिंग्‍स खूब बिकती थीं, पूरे मोल-भाव के साथ। ऐसी पेन्‍टिंग्‍स के लिये कोई एक्‍ज़ीबिशन नहीं लगा करती!
गलियों में घुस कर तुम्‍हारी इतनी लम्‍बी कार कहाँ तक आती, सो सड़क पर दूर ही कार खड़ी कर के हम दोनों पैदल इस घाटकोपर की एक मोहल्‍लेनुमा कॉलोनी में पहुंचे थे। वह एक बहुत पुराना घर था, जिसके पीछे के बदबूदार खुलते हिस्‍से में मेरा कमरा था। मैं हिचक रही थी, पर तुम सहज थे। वही स्‍टूडियो․․․ वही बेडरूम, वही रसोई, वही बैठक․․․ संकोच से मैं गड़ी जा रही थी․․․ पर तुम सहज थे․․․ गलियों में ऐसे चलते आये थे मानो वे बहुत जानी पहचानी हों․․․ हमारे पीछे पीछे मुहल्‍ले के कुछ उत्‍सुक बच्‍चे भी चले आये थे। जिन्‍हें आंख दिखाकर मैंने भगाया था। तुम आराम से जमीन पर बिछे बिस्‍तर पर बैठ गये थे।
“वाह! यही चीज़ मैं सीखना चाहता था।”
“आप?” आश्‍चर्य से मेरी आंखें फैल गई थीं।
“हाँ, एक तो ये, और दूसरे पेन्‍सिल स्‍कैचिंग की वह कला जो राजस्‍थान के स्‍थानीय कलाकार किलों, बावडि़यों, खण्‍डहरों को देखकर मिनटों में बना देते हैं। रणथम्‍भौर का वह पुराने खण्‍डहर से किले के बुर्ज पर बैठे बाघ का वह बड़ा सा पेन्‍सिल स्‍केच मुझे मेरी एक विदेशी मित्र ने दिखाया था। तब से चाह थी कभी ऐसे अद्‌भुत स्‍थानीय कलाकारों से मिलूं। पर यह शहर वक्‍त कहाँ देता है यायावरी का?”
“सर․․․ यह कलाएँ कलाकारों केपरिवारों में, स्‍थानीय कला विद्यालयों में अंतिम सांसें ले रही हैं।”
“तुम मुझे सिखाओगी?” तुम उन चित्रों को घूरते हुए बोले थे।
“मैं!”
तुमने मुझसे जो सीखा, सो सीखा․․․ मैंने तुम्‍हें सिखाते में जाने कितना सीख लिया था․․․ मैं क्‍या सिखाती तुम्‍हें? बस एक प्राचीन चित्रकला शैली की थोड़ी बहुत जानकारी भर ही दे सकी थी। बाकि बारीकियों की कमी तुममें कहां थी? वह खास अन्‍दाज़ में सुनहरे-रूपहले रंगों का बारीक प्रयोग, राधा - कृष्‍ण की वही किशनगढ़ शैली के नैन नक्‍श, जेवर, केले और आम के वृक्ष, नहरें, फव्‍वारे, महल, गलियारे, नहरों में खिलते कमल, वे अनूठे बादल, वन, फूलों के झाड़, तोते, मोर, पुष्‍ट स्‍तनों वाली अभिसारिकाएं झट से बनाना सीख गये थे तुम। गुरूदक्षिणा के नाम पर चौंकाया था तुमने जब एक पॉश सबर्ब की अच्‍छी कॉलोनी में मुझे अपना एक खाली पड़ा स्‍टूडियो मुझे मुम्‍बई में ‘जब तक चाहूं तब तक रहने' के लिये दे दिया था। इस गुरूदक्षिणा में मुझे जो अनजाने-बिनमांगे मिला वह था इतने दिनों का सार्थक साथ और एक पारदर्शी मित्रता। हाँ, तुमने सहज ही अपना मित्र कह दिया था मुझे․․․ सबसे कम उम्र मित्र! मैं कितना खुश थी एक नामचीन चित्रकार की मित्रता पाकर।
तुमने इन चित्रों पर प्रदर्शनी लगाने से पहले पूछा था�
“मैं इसमें कुछ नये प्रयोग करना चाहता हूँ? इजाज़त दोगी?”
“मेरे पिता होते तो नहीं देते․․․ वे सिखाते इसी शर्त पर कि इस शैली का स्‍वरूप विकृत न हो। पर अब क्‍या सर․․․ अब तो हर चीज़ का व्‍यवसायीकरण हो गया है।”
इस शैली को लेकर किये गये प्रयोग अनूठे ही थे तुम्‍हारे, तम्‍हारी ही तरह। पहली बार मेरे गाल लाल हो गये थे जब तुमने अपना प्रथम प्रयोग मुझे दिखाया था। प्रणयरत राधा - कृष्‍ण की पेन्‍टिंग में एक घने पेड़ों का जंगल भी सही था, उस पर ब्रश के अलग तरह के प्रयोग से सुर्ख फूल भी सही उकेरे थे, रात के प्रहर में नहर की लहरों को सलेटी दिखाना भी उचित था, पेड़ों के झुरमुट में सोते पंछियों के घोंसले भी अपनी जगह ठीक थे। तनों के कोटर से झांकते तोते और उस झुरमुट में धरती पर बिछा सूखे-गीले पतझड़ी पत्त्‍ाों का बिछौना भी․․․ चलो ठीक ही था, कृष्‍ण के तीखे नैन, मोर पंखी मुकुट और राधा की मराल ग्रीवा सी लहराती बांहें, पैरों का सुर्ख आलता भी अच्‍छा बना था। पर․․․ गाल तपने लगे थे, गला सूख गया था, हथेली पर ब्‍लेड चला देते तो वहां तुम्‍हें मेरा बहता खून नहीं मिलता․․․ जम गया था। माना प्रणयरत युगल का चित्र था, निर्वसन, आलिंगनब(, प्रणयरत राधा कृष्‍ण को भी मैंने पापा की स्‍टील की से़फ में बन्‍द रहने वाली और हजार रुपये में बिकने वाली पेन्‍टिंग्‍स में देखा था। पर तुमने यह क्‍या किया था․․․ छिः।
“छिः क्‍या? हां, इसमें गलत क्‍या है?क्‍या विपरीत रति नहीं पढ़ा तुमने घनानंद-बिहारी की कविताओं में? मथुरा की हो, मंदिरों के आस-पास रहती हो, क्‍या वैष्‍णव कविताएं नहीं सुनीं? वे भी तो कृष्‍ण-राधा ही हैं, अपने चिरंतन स्‍वरूप में और ये भी!”
मैं निरुत्त्‍ार। क्‍या कहती तुम्‍हें कि� सब कुछ देखा- पढ़ा- सुना था मधुसूदन लेकिन तुमने कहां पढ़ लिया यह सब? मैं ने तो उसे भक्‍ति के अतिरिक्‍त कुछ नहीं माना था किन्‍तु वह जो तुमने पेन्‍ट किया था वह बहुत दुनियावी किस्‍म का प्रणय व्‍यापार लगा था। तुमने तो वैसे ही चित्रों की एक पूरी सीरीज़ निकाल दी प्रण्‍य की भिन्‍न- भिन्‍न मुद्राओं में राधा-ड्डष्‍ण के मिनिएचर्स, असली सोने और चांदी के रंगों के अनूठे प्रयोग किये थे तुमने। तुम्‍हारे अगले एक्‍जि़बिशन में वे सारी खूब सराही गइर्ं। बिकीं भी हाथों हाथ महंगे मूल्‍यों में। मुझे तब बहुत गुस्‍सा आया था तुम पर लेकिन मुझे उस नरक जैसे घर से निकल, शीघ्र ही इस स्‍टूडियो में आना था सो मैं ने तुमने कुछ नहीं कहा। तुम्‍हारा इस शैली को देखने की जुनून जल्‍द ही उतर गया। फिर लम्‍बे समय तक तुमने कुछ नहीं बनाया। यामिनी और अपने बिखरते दांपत्‍य को लेकर बहुत परेशान थे तुम।
उसके बाद अगर तुमने कुछ बनाया भी तो अधूरा छोड़ दिया। मैं ही उन अधूरे चित्रों को कबाड़ से उठा-उठा कर पूरा किया करती थी। दरअसल यह स्‍टूडियो जो तुमने मुझे दिया था, वह तुम्‍हारे कबाड़ रखने के लिये ही तो इस्‍तेमाल होता रहा था। तुम इतने चतुर थे कि अपने उन अधूरे कैनवासों को मेरे पूरा कर देने के बाद उन्‍हें ज़रा सा अपना स्‍पर्श दे कर प्रदर्शनी लगा कर बेच लेते थे। हज़ारों में बिकते वे․․․ तुम्‍हारे नाम से। मुझे आपत्त्‍ाि नहीं थी, मेरा अभ्‍यास भी हो जाता और अहसान भी उतरता था।
यामिनी से तुमने चाव से ब्‍याह किया था, पे्रम विवाह! वह कथक नर्तकी तुम चित्रकार․․․ बड़ा रोमान्‍स था इस बन्‍धन की कल्‍पना मात्र में, तुम बताया करते थे। कितनी-कितनी भाव-भंगिमाओं में नृत्‍यरत यामिनी के चित्र तुमने बनाये मगर उन्‍हें कभी प्रदर्शित नहीं किया। न बेचा। उसकी नृत्‍यशाला के भव्‍य हॉल में सजते थे वे कभी․․․ लेकिन आज धूलधूसरित वे मेरे इसी स्‍टूडियो के स्‍टोर में उल्‍टे पड़े हैं, वैसे ही जैसे कि तुम उस रात उन्‍हें गुस्‍से में पटक गये थे।
उस काल्‍पनिक बंधन में जो रोमान्‍स था वह असल जि़न्‍दगियों में क्‍यों नहीं चला? मैंने मधु तुमसे कभी पूछा भी नहीं। तुम जब यामिनी से नाराज़ होकर यहाँ आकर प्रलाप किया करते थे उसमें से मैं कुछ हिस्‍सा ही सुनती थी, कुछ कानों में जाकर भी अनसुना-अनबूझा रह जाता। सुना हुआ अंश भी कुछ बहुत उथला लगता था। ऐसा लगता था तुम पति-पत्‍नी नहीं, मानो दो सियामीज़ जुड़वां हों। साथ रहने की विवशता और अलग होने की छटपटाहट! साथ रहने की विवशता के बीच में दोनों को जोड़ती किशोर होती बेटी थी। कभी दोनों अपनी-अपनी जगह गलत लगते, कभी सही। तुम दोनों ही बेचैन आत्‍माओं वाले कला के अभूतपूर्व सर्जक․․․ दोनों के दोनों अतिमहत्त्‍वाकांक्षी थे। तुम दोनों ही अपने - अपने आसमान के चमकते सितारे थे, मैं एक अदना सा उल्‍का!
मैं थी ही कौन? तुम्‍हारी कोई नहीं। एक शिष्‍या शायद? या वह भी नहीं। तुम तो कभी यूं ही चले आते थे हमारे कॉलेज! ऑनरेरी प्रोफेसर बन कर कभी कभार। मेरे पास तुम्‍हारा दिया हुआ स्‍टूडियो था, उसके बदले में मुझे तुम्‍हें सुनना होता था, उस स्‍टूडियो की सुविधाओं व शांति के बदले मैं तुम्‍हें घण्‍टों सुन सकती थी, इसके सिवा और कोई लेना-देना नहीं था तब तक तो हममें - तुममें!
फिर भी तुम्‍हारा तुर्श व्‍यक्‍तित्‍व मुझे आकर्षित करता था। बेतरतीब दाढ़ी, ओजस्‍वी पेशानी, सलेटी -हरे -नीले रंगों की परछाइयों में तैरती आंखें, जिनके नीचे हमेशा रहने वाली एक सूजन। अच्‍छे से आकार वाले थोड़े पृथुल होंठ जो सिगरेट से जल कर लाल से कत्‍थई-सलेटी हो चले थे। तप कर निखरे कांसे का सा रंग। लापरवाही से सहेजी देह, दुबली - पतली।
उन्‍हीं बिना लेन-देन वाले दिनों में । एक निर्लिप्‍त, निस्‍पृह आकर्षण, चुप्‍पे प्रेम को महसूस करते हुए․․․ थरथराते दिनों में, मैं तुम्‍हारे और यामिनी के बीच गेहूँ बीच घुन की तरह पिसी थी। हर बार की तरह झगड़ कर तुम मेरे पास आये थे। ;तब मैं सोचती थी तुम्‍हारा कोई दोस्‍त नहीं होगा, पर सच तो ये था कि तुम्‍हारे दाम्‍पत्‍य के झगड़े सुनने को मैं ही एक बची थी जो बिना प्रतिवाद किये लगातार सुनती थी।द्ध पीछे-पीछे यामिनी आ गई। मैंने उन्‍हें उनके चित्रों के बाहर पहली बार देखा था।
“तो ये है तुम्‍हारी ‘नई वजह'। ” उनकी भावप्रवण आंखों में प्रगल्‍भा नायिका की सी ईर्ष्‍या कम रौद्र रस प्रधान था․․․। काजल से लदी बड़ी-बड़ी अभिनयग्रस्‍त आंखें, मानो तब भी भस्‍मासुर मर्दन का दृश्‍य अभिनीत कर रही हों।
मैं सच में बुरी तरह सहम गई थी।
“उस मासूम को बीच में मत घसीटो। यह तो बस यहां रह रही है।”
“गई नहीं तुम्‍हारी जवान लड़कियों को दोस्‍त बनाने की आदत? पहले वह तूलिका․․․ अब यह․․․।”
“मुझे भी अपना- सा समझा है। हर डान्‍स ट्रिप पर एक फिरंग अनुभव! फिर आकर कहती हो कि क्‍या हुआ अगर भूख लगी तो बाहर एक बर्गर खा लिया तो! हाइट्‌स ऑफ डबल स्‍टैर्ण्‍ड्‌स।”
“तो कहो न तुम भी․․․ भूख लगी तो․․․ बाहर! प्‍यूरिटान होने का नाटक फिर क्‍यों․․․”
“बकवास मत करो यामिनी, इस बच्‍ची को बख्‍श दो। चलो घर।”
“बच्‍ची!․․․”
तब तक मैं अन्‍दर जाकर उनके लिये पानी ले आई थी। उन्‍होंने चुपचाप पी लिया था। पता नहीं क्‍यों पानी पीकर, मेरे साधारण चेहरे, साधारण आंखों में झांक कर उन्‍हें अपने पति पर तो नहीं लेकिन मुझी पर हल्‍का सा यकीन आ गया था। वे चुपचाप तुम्‍हारे साथ चली गई थीं। उसके बाद जब मिलीं एक आत्‍मीयता से।
उनके- तुम्‍हारे झगड़े फिर कभी सुलझे ही नहीं। रम्‍या, तुम्‍हारी बेटी बड़ी हो रही थी और तुम दोनों तलाक की सोच रहे थे किन्‍तु तुम दोनों ही ऐसा नहीं कर सके। कलाकार थे दोनों․․․ किसी सम्‍बन्‍ध को तोड़ कैसे सकते थे, वह थी पेपर्स पर लिख कर साइन करके। तुम दोनों से एक दूसरे को बिना लिखत-पढ़त स्‍वतन्‍त्र कर दिया था। मैं ने तुम्‍हें बुरी तरह टूटा देखा, तुम रम्‍या के लिये तरसते थे, वह घर जिसके होने का सुख यामिनी से जुड़ा था, समाप्‍त हो गया।
मैंने तुम्‍हें महीनों नहीं देखा। चित्रा ने ही एक बार बताया था कि- मधुसूदन सर आजकल पुरानी लाइब्रेरियों की खाक छान रहे हैं, वेद पुराणों और उपनिषदों के अलावा पुरानी पाण्‍डुलिपियों को पढ़ रहे हैं। मुझे पता था टूटन के दिनों में तुम्‍हें उपनिषदों का दर्शन बहुत आन्‍दोलित किया करता था, तब तुम आध्‍यात्‍म के सुर में बात किया करते थे। बड़े वाले स्‍टूडियो में ही रहते, पीते थे․․․ पर उस बार जब तुम इस हायबरनेशन से निकले तो कला का एक अनमोल खज़ाना लेकर। उपनिषद के यक्ष प्रश्‍नों को बहुत मुखर रूप से पेन्‍ट किया था। अद्‌भुत था वह सब, वे चित्र बोलते थे, प्रश्‍न करते थे और समाधान भी। कितनी समीक्षाएं, कितने पुरस्‍कार! कितना नाम हुआ था। देश के सर्वश्रेष्‍ठ चित्रकारों में नाम शुमार हुआ। लेकिन तब तक पैसों के प्रति तुम्‍हारा मोहभंग हो चुका था․․․ तुमने कितने ही अनमोल विशाल चित्र स्‍वयंसेवी संस्‍थाओं को, सरकारी कला वीथिकाओं को दान कर दिये। अखबारों के मुखपृष्‍ठों पर, चित्रकला के अन्‍तर्राष्‍ट्रीय जरनलों पर तुम्‍हारा नाम और चित्र छाये रहे।
मैं अब भी हाथ-पैर मार रही थी, जीविकोपार्जन, कला साधना, कला के क्षेत्र में प्रतिष्‍ठा का प्रयास - तीनों के लिये। मैं ने मान लिया था कि तुम भूल गये होंगे अपने इस अकिंचन परिचिता को। एक बार मिले थे तुम उन ख्‍यातिनाम दिनों की शुरुआत में, तुम्‍हारी एक्‍जीबिशन थी जहांगीर आर्टगैलेरी में। हॉल में एकदम तुम्‍हारे सामने, तुम्‍हारे कुछ परिचितों के साथ मैं भी खड़ी थी, तुम मुझ पर एक ठण्‍डी-रीती हुई दृष्‍टि डाल कर एक भीड़ के साथ मेरे सामने से यूं निकल गये थे, जैसे मैं पारदर्शी दीवार होऊं। मेरे लिये तुम्‍हारा वह व्‍यवहार नया नहीं था, मैं थी ही क्‍या एक ज़र्रा और तुम कहां एक हस्‍ती! ना, मुझे बुरा नहीं लगा था। मैं ने तो मान ही लिया था कि तुम भूल गये हो, अपनी सबसे कमउम्र दोस्‍त को। फिर भी एक उम्‍मीद थी कि कभी इस स्‍टूडियो को खाली करवाने या इस स्‍टूडियो में पड़े अपने चित्रों की याद आने पर․․․ कभी तो आओगे ही।
तुम्‍हारी ख्‍याति के उन चमकीले दिनों के फीके पड़ने के कुछ दिन बाद तुम आये भी, स्‍टूडियो को खाली करवाने या किसी अन्‍य काम से नहीं, मुझसे मिलने। क्‍योंकि बहुत दिन बाद तुम्‍हें अदरक वाली चाय की याद आई थी, लगातार बरसात की वजह ठण्‍ड हो गयी थी, भूट्‌टे बिकना शुरू हो गये थे। इधर से गुज़रे तो वही कुछ याद आ गया था। मैं․․․ मेरे बहाने यामिनी․․․ यामिनी के बहाने․․․ मैं। मोती के मनके थे कहीं से भी फेर लो।
“क्‍या चल रहा है?”
“कुछ खास नहीं, वही फ्रीलान्‍स काम और एम․ए।
“एम․ए․ किसलिये? आर्टिस्‍ट हो, प्रोफेसर बनना है क्‍या?”
“कुछ नया सीखने को मिलेगा।”
“कुछ नया- वया सीखने को नहीं मिलेगा। वहाँ यूनिवर्सिटी में सब गधे बैठे हैं। वो तुम जैसी कलाकार को क्‍या सिखायेंगे? सीखना था जो सिख लिया, अब अपनी शैली बनाओ और अपना पी․आर․ डैवलप करो, लोगों से मिलो, स्‍वयं को स्‍थापित करो। तुम में जो सच की कला है, भारतीय संस्‍ड्डति को भीतर तक जानने का जो अनुभव है, वह आज दुर्लभ है। उसे उकेरो, सामने लाओ। तुम्‍हारी टे्रनिंग पूरी है बस लोगों के सामने आने की ज़रूरत है।”
“मैं तो कुछ भी नहीं हूँ। मेरे साथ के स्‍टूडेन्‍ट्‌स․․․”
“रबिश! वो चित्रा खाक कलाकार है? बस उसे लोगों को सीढि़यां बनाना आता है, अच्‍छी अंगे्रज़ी आती है, स्‍टायल है उसमें। हरेक को खास महसूस करवा देती है। तुम्‍हारी तरह थोडे़ ही कि एक कोने में बैठ कर बढि़या पेन्‍टिंग्‍स बना लीं और मुंह पर ताला लगा लिया। एडवर्टाइज़मेन्‍ट एजेन्‍सीज़ के दरवाजे जा-जा कर अपनी कला बेच लोगी पर बड़े स्‍तर पर अपनी कला बेचना नहीं आयेगा।”
मैं तमतमा गयी थी पर वे शायद मुझे उकसा ही रहे थे तमतमाने को । ऐसा वे करते आये थे।
चाय के बाद, भुट्‌टा भी सिका। फिर मधुसूदन तुमने अपनी पुरानी कबर्ड खोल अपना ड्रिंक भी बना लिया, बाहर से खाना भी आ गया लेकिन बातें खत्‍म नहीं हुइर्ं। बहुत अरसे की अकुलाहट थी, इसीलिये मैं याद आई थी। ज़माने भर की, कला की, कलाकारों की बातों का अन्‍त हो चुका था पर अकुलाहट कहीं शेष थी। उदासी किसी किसी की आँखों में जंचती है। उदासी तुम्‍हारी आंखों में झलमल जगमगाती। सुखी होने का नाटक कौन नहीं करता? पर दुखी होने के लिये नाटक की क्‍या जरूरत। वह तो छलक जाता है हँसी में भी। तुम्‍हारी आंखों का गीलापन जिन्‍दा मछली की देह पर तिरता गीलापन था।
कभी न कभी तो काठ का कलेजा भी फटता है न!
मेरे आगे कभी-कभी तुम मोमबत्त्‍ाी की तरह पिघलते बूंद बूंद। उस दिन भी पिघले बहुत देर बाद सिगरेट के धुएं के गुबार से कुछ बेचैन शब्‍द निकले� “उमा, यामिनी यू․एस․ जा रही है।” मैं खाना गरम कर रही थी। स्‍टूडियो के हल्‍के धुएं से भरे अंधेरे में से बहुत ठण्‍डी आवाज़ में तुमने कहा।
“तो․․․ क्‍या हुआ। जाती ही रहती हैं वे तो। परफॉरमेन्‍स होगी।” बिना मुड़े, मैं ने आवाज़ में छिपी टूटते घर की दीवारों की अर्राहट को सुन लिया था पर मैं ने न समझने का अभिनय किया।
“ना․․․ यूं ही नहीं․․․ रम्‍या को लेकर। हमेशा के लिये।”
“क्‍यों?”
“कोई है।”
“कौन?”
“जिससे वह शादी कर रही है। एक बिज़नेसमेन।” उसके बाद तुम खामोश हो गये। मैं तुम्‍हारी खामोशी को कुरेदना नहीं चाहती थी। तो यह बात थी, जो मधुसूदन तुम्‍हें बरसों बाद उमा को बताने की अकुलाहट हुई थी। मैं उमा तुम्‍हारे बिखरते दाम्‍पत्‍य की राज़दार। मैं जो इस राज़दारी को, इस दोस्‍ती का फायदा नहीं उठा सकी। मैं जो तटस्‍थ थी, सुनकर भी नहीं सुनती थी उन जी मिचला देने वाली बातों को।
तुम ड्रन्‍क थे, थोड़ा सा खाना खाकर उसी सैटी पर सो गये थे, जहाँ मेरे सोने का ठिकाना था। मैं मूढ़े पर बैठी रही देर तक, फिर थक कर वहीं बगल में चादर बिछा सो गयी। मेरा मन बहुत घबरा रहा था, लोग क्‍या सोचेंगे इस बात की चिन्‍ता नहीं थी। तब चित्रकारों के किस्‍सों-प्रेम प्रसंगों को अखबारों के तीसरे पन्‍ने पर कोई जगह नहीं मिला करती थी लेकिन मुझे ही किसी पुरुष के सान्‍निध्‍य की यूं आदत नहीं थी। तुम्‍हें बताया तो था․․․ कभी या पता नहीं․․․ पिता के पास सोना पांचवी कक्षा के बाद से छोड़ दिया था। और फिर तब से अब तक पुरुष प्रसंग से कोरा ही रहा था मन। साधारण चेहरा मोहरा, कभी किसी लड़के ने नहीं जताया कि मैं भी रुचि लेने लायक लड़की हूँ। बी․ए․ में शादी का प्रसंग चला तो चार-पांच बार नकार दिये जाने पर मां के खिलाफ जाकर․․․ पापा की शह पर बम्‍बई चित्रकला पढ़ने आ गई थी।
अजीब सी स्‍थिति थी उस रात मधु। कभी स्‍वीकार नहीं किया, आज करने दो। हां तो․․․ तुम्‍हारी बगल में उस चादर पर लेटे लेटे मन कह रहा था कि “कहीं इस आदमी ने․․․ पकड़ लिया तो।” पर यह बात डरा कम रही थी, रोमांचित ज्‍़यादा कर रही थी․․․ पर फिर भी मैं अपने वाक्‌ अस्‍त्र पैने कर रही थी, मसलन� “मुझे चित्रा समझ लिया है? मैं इस कीमत पर तो कतई अपका नाम लेकर आगे बढ़ना नहीं चाहती। कितना विश्‍वास किया․․․ अभी निकलें यहां से․․․ और अगर यह आपका स्‍टूडियो है तो मैं ही निकल जाती हूँ।” पर एक अनजानी कामना के आगे ये अस्‍त्र भौंथरे थे मधु। पर तुम उतने ही गरिमामय थे जैसा मैं ने आरम्‍भ से तुम्‍हें जाना था। रात बीतती जा रही थी, सुबह की आहट ठिठकी थी। तुम बेसुध। मैं प्रसन्‍नता और तुम पर गर्व, एक संतोष के साथ-साथ कहीं व्‍यग्र भी थी। उस तुम्‍हारे द्वारा स्‍वयं को पकड़े जाने की क्षीण सी उम्‍मीद खत्‍म हो रही थी। न जाने कब नींद आ गयी। उठी तो तुम नहीं थे। इज़ल पर लगे खाली कैनवास पर ‘सॉरी' का नोट चिपका था। वह सॉरी किसलिये था मधु?
फिर तुम अक्‍सर साधिकार मेरे स्‍टूडियो आते रहे थे। तुम्‍हारा दूसरा बहुत बड़ा स्‍टूडियो मेरे लिये अब तक रहस्‍य है। पहले सुना था उसमें कइर्ं कमरे हैं, दीवारों की साइज़ के कैनवासेज़, उसी स्‍टूडियो में तुम्‍हारी सारी महान पेन्‍टिंग्‍स बनी थीं। सुना, अब वहां एक विशाल बुटीक खोल लिया है तुम्‍हारी भान्‍जी ने। धीरे-धीरे लोग तुम्‍हें भूलने लगे हैं मधु। और मैं․․․ मेरा क्‍या है․․․ मैं तो वही उल्‍का हूँ� तुम्‍हारी लगातार घूमती व्‍यस्‍त दुनिया में जाने कहां से टूट कर आ गिरा एक पिण्‍ड! जो तुम्‍हारी परिक्रमाओं में खलल डाले बिना तुम्‍हारे चारों ओर नामालूम सा घूमता रहा․․․ बल्‍कि आज भी घूम रहा है, इस निर्वात में तुम्‍हारी उपस्‍थिति के महज आभास के चारों ओर! ठीक उसी तरह जैसे अंतरिक्ष में उल्‍का पिण्‍ड घूमते रहते हैं पृथ्‍वी के चारों ओर। अगर पृथ्‍वी की कक्षा में घुसे तो अद्‌भुत चमक के साथ जलकर खाक हो जाते हैं।
तुमने मुझे उस बड़े स्‍टूडियो आने के लिये सदैव अनुत्‍साहित किया। स्‍वयं तो कभी लेकर गये नहीं। लोग उड़ाते थे कि वहां तुम्‍हारे लिये कुछ लड़कियां न्‍यूड मॉडलिंग करती हैं। मैं ने तुम्‍हारी पेन्‍टिंग्‍स में तो वह तत्‍व कभी देखा नहीं। शायद पापा की तरह ही․․․ जो प्रणयरत पेंटिंग्‍स वे हम सब से छुप कर जाने कब बनाते थे, जाने कब वे बिक जाती थीं। वो तो गलती से एक बार मैं ने उनकी अनुपस्‍थिति में अलमारी खोल ली थी। पतली कलम निकालने के लिये। प्रेम का वह पक्ष मुझे तब भी उद्वेलित कर गया था।
तुमने आगे बढ़ कर राह खोल दी तो मुझे पैर बढ़ाने को नई दिशाएं मिलीं। मुझमें मीडिया के लोगों और कला समीक्षकों से सम्‍पर्क करने की तमीज़ थी, न भाग दौड़ करने की ताकत व साधन, न ही पैसा। तुमने मुझे सिखाया अपनी राह बनाना, तुमने मेरी सहायता की पहली एक्‍ज़ीबिशन लगाने में, हां, मानसिक, शारीरिक और आर्थिक सहायता। साथ ही तुमने मुझे सिखा दिया सिगरेट पीना, वाइन पीना। वह सब उसी स्‍टूडियो की चारदीवारी में ही हुआ करता। ढेर सी बातों के बीच। तुमने बनाया आत्‍मविश्‍वासी। मेरी पहली पेन्‍टिंग तुम्‍हीं ने खरीदी थी। लोग मुझे पहचानने लगे थे। मेरी सफलता में तुम सदा नेपथ्‍य में रहे। हमारा नाम कभी जुड़ा नहीं। दो किनारे नहर के जिनके बीच बहता ज़रूर था एक रिश्‍ता पर उस रिश्‍ते का नाम नहीं था, कोई पहचान नहीं थी। तुम्‍हें उसकी ज़रूरत भी नहीं थी। लेकिन तुमने मुझसे भी नहीं पूछा कि मुझे इस पारदर्शी रिश्‍ते को कोई रंग देने का मन करता है क्‍या? जिस दिन दुनिया के बीचों-बीच तुम मुझसे अनजान बन कर कतरा जाते थे, उसी शाम हम साथ अदरक की चाय पीते, रात को सिगरेट और वाइन के बाद फिर ड्राई फूट खाते। फिर दो मर्द दोस्‍तों की तरह इधर-उधर मुंह करके सो जाते।
उस ज़माने में लिविंग इन रिलेशन दुर्लभ था, लेकिन हम साथ रहते थे स्‍वच्‍छन्‍द हो कर। शायद वह लिविंग इन रिलेशन ही था, बिना किसी जि़म्‍मेदारी, बिना किसी बन्‍धन के․․․ जहां देह की भूमिका शून्‍य थी। तुम आधार बने, तुम साथी बने, तुम प्रेरणा बने तो मन के उस नितान्‍त खाली गर्भगृह में स्‍थान कैसे न पाते? जब तुमने जाना तो खीज कर रह गये थें
“और तुम जैसी मध्‍यमवर्गीय मानसिकता वाली लड़कियां और क्‍या कर सकती हैं। शादी कर लो, किसी को प्‍यार कर लो। मन ही मन चाह लो। मैं सोचता था अलग किस्‍म की लड़की है․․․ इस बेबाक, बेरोकटोक साथ में प्रेम और लगाव जैसे शब्‍दों का घिसा हुआ घटियापन नहीं घुसाएगी। बल्‍कि मैं ने तुझे लड़की नहीं दोस्‍त सबसे कमउम्र दोस्‍त माना।”
तब मुझे पहली बार लगा था कि मैं देखने में बहुत ही साधारण नहीं बल्‍कि बदसूरत ही हूँ। किसी को आकर्षित नहीं कर सकती। मुझसे दोस्‍ती की जा सकती है, पर․․․ प्‍यार व्‍यार․․․ नहीं। मन खिन्‍न रहा था। और मैं ने बहुत ही मटमैले रंग लेकर टूटी चारपाई पर लालटेन लिये एक छोटे वक्षों वाली, काली बदसूरत लड़की बनाई थी। तुम्‍हारे पूछने पर कि“यह क्‍या है? मैं ने कहा था, “सेल्‍फ पोर्ट्रेट है।” तुम भुनभुना कर रह गये थे।
“मुझे पता है मैं सुन्‍दर नहीं पर․․․”
“हाँ, तुम सुन्‍दर नहीं हो․․ सुन्‍दरता मैं ने देखी है․․․।” तुम्‍हारी आँखों में एक पुराने गुमनाम प्रेम का कपाट खुलने को आतुर था। पहले प्रेम का․․․ अपनी पहली प्रेरणा का․․․ तुम्‍हारी मुफलिसी और गुमनामी के दिनों का․․․ जब तुम समुद्र किनारे लोगों के पोर्ट्रेट बनाया करते थे․․․ मेरी ही तरह मुम्‍बई के किसी सबर्ब में पुराने मुहल्‍ले के एक खण्‍डहरनुमा मकान की बरसाती में रहते थे। शायद वह लड़की तुमसे उम्र में बड़ी थी। ईसाई थी या एंग्‍लोइंडियन। वैसे मैंने हमेशा महसूस किया कि गोरे-सफेद रंग का तुममें ऑब्‍सेशन था। तुम्‍हारे चित्रों की हर स्‍त्री आकृति बिलकुल सफेद होती है, छोटे पंजों वाली!
“हाँ, जो मुझे एक बार देखता है मुड़कर ज़रूर देखता है।” मैं ने तुम्‍हें चिढ़ाने को कहा था पर तुमने यह बात सुनकर भी उपेक्षित कर दी थी। यह बात तुम सुनना और कतई महसूस नहीं करना चाहते थे। शायद!
“हमें नहीं होता अब प्‍यार व्‍यार। वह होकर रीत गया और उस की लाश लेकर उम्र बीत गयी। अब ऐसी चीजें कोई थ्रिल नहीं देतीं। जैसे बड़े त्‍योहार आते हैं चले जाते हैं थ्रिल नहीं होता। पहले होता था यह थ्रिल छोटी-छोटी बातों का मसलन चांदनी का, बरसात का, जन्‍मदिन का, अब नहीं․․․भई पैंतालीस का हो रहा हूँ।” नमक में भीगी तुम्‍हारी आवाज़ मन में गहरे पैठती, शब्‍द ऊपर तिरते रह जाते।
एक डिप्‍लोमेटिक अलगाव लगातार तुम पर तारी रहता था। तुम सम्‍बन्‍धों में भावुकता के सख्‍़त खिलाफ थे। बकौल तुम्‍हारे․․․ जिसे जितना अधिक प्रेम होगा वह उतना ही ख़ामोश और निस्‍पृह मालूम होगा। मुझसे भी तो पूछा होता कभी․․․ मेरे प्रेम का दर्शन․․․ जहाँ तक मेरा ख्‍याल था, यह दर्शन सब अपना-अपना गढ़ा करते हैं, अपनी तरह से। जैसे वे स्‍वयं गढ़े गये होते हैं, परिस्‍थिति और प्रकृति के हाथों। माना प्रेम बातूनी नहीं होता। प्रेम है तो अभिव्‍यक्‍त तो होगा न! निस्‍पृह, चुप्‍पा․․․ उदासीन प्रेम यह तो मेरा फलसफा नहीं था․․․ पर तुम्‍हारा तो था․․․ अन्‍ततः!
तुम्‍हें हुड़क या हूक होती थी․․․ प्रेम की या देह की। बहुत संताप पाने पर एक दोस्‍त की जो समूचा कान हो․․․ जो न प्रश्‍न करे, न सलाह दे। जाने क्‍यों मैं नहीं समझा सकी स्‍वयं को कि प्रेम कभी चाय या सिगरेट जैसा भी हो सकता है।
मेरे लिये तो हवाएँ प्‍यार का मौसम लाई ही नहीं और जो आया वह अप्रत्‍याशित था, जानी बूझी उपेक्षा से भरा था और नितान्‍त एकतरफा․․․ और मैं सारी दुनिया से अलग रंग की और एक उम्र देख चुकीं, प्रेम जी चुकीं, जुड़ कर टूट चुकीं उन आंखों के लाल डोरों से बंधी जा रही थी। तुम्‍हारे लिये मेरा मन पिघलता था, बूंद-बूंद और तुम्‍हारी ठण्‍डी उपेक्षा से अलग अलग तरह की आकृतियों में जम जाता। शिष्‍या! मित्र! प्रेमिका? या कोई भी तो नहीं․․․ सही मायनों में तुम्‍हारा दर्शन क्‍या था, कौन जाने? तुम्‍हारे अपरिमेय व्‍यक्‍तित्‍व की सीमाएँ कहाँ थीं? शराब पीकर बहुत बोलते थे तुम․․․ पर कहीं कहीं जहाँ यह उमा उन्‍हें आगे बढ़कार थाम लेना चाहती वहीं उसे घनी कटीली बाड़ लगाए ‘प्रवेश निषिद्ध' का बोर्ड लगा मिलता था। हारना कहां पसन्‍द था तुम्‍हें? दुनिया के समक्ष जो हार छोटा कर दे उसे कैसे स्‍वीकार करते तुम? एक बार कभी कहा था तुमने लम्‍बे खामोश पल में किए गये एक आत्‍मसाक्षात्‍कार के बादः “हारा नहीं उमा मैं, मनुष्‍य मात्र ही नहीं बना हारने के लिये। कैसे हार जाये कोई․․․ जब जन्‍म के पहले ही․․․ उस पहली प्रतियोगिता में जीत कर? कहीं पढ़ा था मैं ने․․․ जब करोड़ शुक्राणुओं की रेस में जो जीत कर जन्‍म लेता है वही मानव बाद में आखिर क्‍योंकर हारे? पहली लड़ाई तो सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्‍ट की वही थी न!”
एक बार फिर बहुत दिनों बाद यायावरी कर तुम लौटे थे, बल्‍कि रम्‍या को पूना के एक इंटरनेशनल बोर्डिंग में एडमिशन मिल गया था। उससे मिल कर लौटे थे, तुम बहुत खुश थे कि तुमने उसे अपने साथ भारत में रहने पर राजी कर लिया है। तब एक रात फिर दो दोस्‍तों की महफिल जमी थी। मैं कला के क्षेत्र में कुछ और सीढि़यां ऊपर चढ़ गई थी। मैं ने तुम्‍हें बताया कि� “इस बार पापा जब मुम्‍बई आये थे खुश थे चित्रकला के क्षेत्र में मेरे मुकाम को देख कर, पर नाराज़ होकर गये थे कि अब तक मैं ने शादी के बारे में सोचा तक नहीं है। मैं साफ मना कर चुकी हूँ कि ‘अब कला ही जीवनसाथी है'।”
यह अतिभावुक और अतिरंजित टिप्‍पणी न पापा के न तुम्‍हारे गले उतरी थी। तुम यह नाटकीय सच जान कर चुप ही रहे। फिर भी हमने वह वाइन पी जो तुम स्‍विट्‌जरलैण्‍ड से थोक में लाये थे, प्‍लम वाईन। एक पूरी बॉटल खाली कर दी थी हमने। तुम हतप्रभ थे मुझे लगातार सिगरेट फूंकते देख पर रोका नहीं था तुमने। उसी रात मैं ने तुम्‍हें बताया था कि उस बदसूरत सेल्‍फ पोर्ट्रेट को ललित कला अकादमी का युवा चित्रकारों में प्रथम पुरस्‍कार मिला है। तुमने कहा था, “गधे बैठे होंगे निर्णायक मण्‍डली में” मैं आहत हुई थी। तब तुमने प्रस्‍ताव रखा था पहली बार कि आज तुम मुझे अपने चित्र का विषय बनाओगे और बताओगे कि मैं क्‍या हूँ एक चित्रकार की निगाह में, अगर मुझे तुम पर भरोसा हो तो!
भरोसा! मधु! तुम हथेली की नस काट देने को कहते तो काट डालती पर तुम्‍हें यह बहनजी नुमा डायलॉग्‍स पसन्‍द नहीं थे। सो मैं हमेशा की तरह चुप ही रही। और․․․ तुम्‍हारे इशारे भर पर मैं ने चुपचाप अपनी स्‍लिप तक उतार दी थी। तुमने नापा-जाँचा-परखा․․․ घुटनों के बल बैठ जाने को कहा․․․ फिर गहरे हरे पर्दे के पीछे आधा ढंका-आधा उघड़ा - सा खड़ा किया। कैनवास पर ब्रश से कुछ रेखाएँ उकेरीं और उठकर सिगरेट सुलगा कर तुम बाहर बॉलकनी में चले गये। फिर तैयार होकर हम बाहर खाना खाने गये। तुम रहस्‍यमय तरीके से चुप थे।
उस रात मेरी देह को एक अहसास की तरह तुमने छुआ था। बस देने और देने के लिये। कुछ भी लेने को तैयार नहीं थे तुम मुझसे․․․ सुख का एक छोटा सा कतरा देने का अहसान भी नहीं लेना चाहते थे। बार-बार अपनी परफोर्मेन्‍स को लेकर पूछते रहे थे।
“सुख तो दिया न मैं ने तुम्‍हें।” जगा-जगा कर कई बार पूछा था तुमने।
“बहोऽत।” मैं ने नींद में गड़ऽप होते हुए कहा था।
हैरान होते रहे थे तुम पचास की उम्र में भी मुझे सुख देने की अपनी अक्षरित क्षमता पर! कैसी असुरक्षा थी वह? किस अलगाव और टूटन के बाद की ग्रन्‍थि थी? क्‍या था वह, मैं कैसे समझती? फ्रायड बाबा के अवचेतनात्‍मक- रहस्‍यों को तब मैं ने पढ़ा ही कहाँ था?
उस रात के बाद में मैं ने सुना तीन दिन तुम अपने स्‍टूडियो में हायबरनेट रहे। लोग कयास लगा रहे थे कि मधुसूदन का कोई मास्‍टरपीस ही आने वाला है। तुम बहुत दिनों बाद पेन्‍ट करने बैठे थे। वो तो मैं तुम्‍हारी अधूरी पुरानी पेन्‍टिंग्‍स को पूरा करती रही बीच में नहीं तो तुम्‍हारी कला में रिक्‍तस्‍थान आ जाता․․․ तुम्‍हारा असर कम होने लगता। यह बात तुम जानते थे। अब इतने समय बाद मेरा ब्रश जब तुम्‍हारी अधूरी पेन्‍टिंग्‍स पर चलता था तो मैं रंग संयोजन और तुम्‍हारी विषय को लेकर मंशा खूब समझ जाती थी। तुम्‍हारी पेन्‍टिंग तुम्‍हारी ही लगती। तुम्‍हारे इस असर से मैं अपनी पेन्‍टिंग्‍स को बहुत कोशिश करके ही बचा पाती थी। अन्‍यथा दो चार टिप्‍पणियाँ इस पर आ चुकी थीं कलासमीक्षकों की आर्टटुडे में कि “उमा सहाय की पेन्‍टिंग्‍स पर मधुसूदन का प्रभाव।” मुझे तो भला लगा था। तुम मुझे हिदायत देने बैठ गये थे कि यह सब हम दोनों के लिये ही ठीक नहीं। तुम जानते थे मेरे बिना तुम्‍हारा और तुम्‍हारे बिना अब मेरा काम नहीं चलने वाला, हाँ, भई इस साझे क्षेत्र में।
हां, तो चौथे दिन तुम प्रगट हुए थे दाढ़ी बढ़ाए, खिचड़ी बाल और पसीने से महकता कुर्ता पायजामा लेकर। मुझे वह विशाल पेन्‍टिंग वैन की डिक्‍की में से लाने को कहा। अकेले लाना मुश्‍किल था पर लाई․․․ उसे अखबारों और सुतलियों के प्रयोग से ढक रखा था। खोला तो हतप्रभ� ढेरों ढेर हरी पत्त्‍ाियों वाली झाड़ी के बीच जामुनी रंग की एक पतली लम्‍बी आकर्षक देह, बालों से ढका वक्ष, पत्त्‍ाियों के बीच झांकती प्रश्‍नर्चिी सी नाभि, लम्‍बे पैर, चेहरा लम्‍बा, लम्‍बी खिंची तरल आंखें। बालों में जवा का रक्‍ताभ पुष्‍प। ‘शिवाज़ पार्वती' कुछ कहा नहीं तुमने, कहते ही कहां थे तुम कुछ। न मुझे कुछ कहने का मौका देते थे। तुमने फिर पूरी सीरीज़ बनाई। एक्‍ज़ीबिशन लगी। पर वे सब पेन्‍टिंग्‍स दान कर दीं तुमने एक संस्‍थान को। एक भी पेन्‍टिंग न मुझे दी, न खुद रखी। आगे इस विषय पर न कुछ पूछा गया न कहा गया। मैं ने अपने आप जान लिया मैं क्‍या हूँ तुम्‍हारे लिये।
धीरे-धीरे तुमने पुराना घर छोड़ दिया। बड़ा स्‍टूडियो बन्‍द हो गया। तुमने इस स्‍टूडियो से लगा अपना फ्‍लैट किरायेदार से खाली करवा लिया और यहीं चले आये। तुम बीमार रहने लगे थे और तुम्‍हें किसी की जरूरत थी अपने पास। पूरे वजूद पर तारी एक हताशा और घन्‍टों खड़े या बैठे रह कर पेन्‍ट करने की शारीरिक अक्षमताओं के चलते तुमने पेन्‍ट करना एकदम बन्‍द कर दिया था। इस सबके बावजूद मुझ पर नकारात्‍मक प्रतिक्रिया करना जारी रखा, मुझे डांट कर सिखाना जारी रखा। तुम्‍हें दिक्‍कत होती थी, मैं ने सिगरेट पीना कम कर दिया था। मैं अपनी पूरी आस्‍था के साथ तुम्‍हारी देखभाल करती थी। हम अब भी ज्‍़यादातर एक ही बिस्‍तर पर दो अजनबियों की तरह सोते थे॥ तुम बिस्‍तर के एकदम दूसरे कोने पर ए सी के एकदम सामने और मैं․․․ उस तरफ जहां गाढ़ा अंधेरा होता। मेरा हाथ गलती से तुम्‍हारी छाती पर या पैर तुम्‍हारी छाती पर या पैर तुम्‍हारी जांघ पर पड़ जाता तो तुम चिल्‍ला पड़ते थे।
“ठीक तरह से सोओ उमा!”
कभी जब तुम पार्टियों में ज्‍़यादा शराब पी लेते थे तो․․․ लौटते थे मेरे पास․․․ वर्जनाओं और अतीत से मुक्‍त होकर․․․तुम बेलौस होकर कह भी देते․․․ ‘शराब पीकर वर्जनाएं टूट जाती हैं और उमा मैं तुम्‍हें छू पाता हूँ बिना अपराधबोध के।' और कहते- ‘छोटी-छोटी तलाशों का अपना मतलब होता है। बस एक गिलास वाइन और मैं अपने पूर्वाग्रहों से मुक्‍त।' पर बिना शराब दिल पर एक सांकल हमेशा चढ़ी रहती, होंठों के टांके यदा कदा ही टूटते। आंख मिचौनी जैसी दोस्‍ती चलती रहती। उन हताशा भरे दिनों में तुम एक रन्‍ध्रविहीन पारदर्शिता ओढ़े रहते थे, जिसे देख कर लगता था कि मैं इस तरल को छूकर तुम्‍हें छू सकूंगी, पर वह तरल कहां था, वह प्‍लास्‍टिक-सी रन्‍ध्रविहीन पारदर्शिता थी․․․ जिसे छूकर निर्जीव हो जाते सारे सम्‍वेदन।
लोग कहते थे, मैं तुम्‍हारी प्रेमिका हूँ! प्रतिक्रिया में तुम्‍हारी खीज देख कर मन ही मन मैं खुश होती थी। पर सच तो ये था तुम प्रेमी बनना ही नहीं चाहते थे, हाँ, तुम्‍हें आराध्‍य बनना स्‍वीकार्य था। जहां बिना कुछ लिये, बिना कुछ दिये․․․ एक महज एक आभास बन कर रहा जा सके। बिना किन्‍हीं कर्तव्‍यों के।
कला की दुनिया बहुत भुलक्‍कड़ होती है मधु․․․ लेकिन तुम्‍हारे पेन्‍ट न करने के बाबजूद तुम्‍हारा नाम तब भी सम्‍मान से लिया जाता था․․․ तुम्‍हारी शैली को बहुत लोग आगे बढ़ा रहे थे․․․ पर कला की दुनिया पर से तुम्‍हारा ‘होल्‍ड' खत्‍म हो रहा था․․․ तुम लगातार हताशा के गर्त में गिर रहे थे। मैं तुम्‍हें बाहर लाने के लिये चित्र बनाने के लिये प्रेरित करती तो तुम मुझसे बहस करते।
“मैं ने जितना काम किया, उसका आधा भी न मुझसे पूर्व के, न मेरे समकालीन, न मेरे बाद के चित्रकार कर सकते हैं।”
उन्‍हीं दिनों तुमने देश के सर्वश्रेष्‍ठ कलाकार का सम्‍मान ठुकरा कर उसे न लेने की घोषणा कर दी थी। ‘यह सम्‍मान मुझे कब का मिल जाना चाहिये था। अब इसका क्‍या अर्थ?'
याद है, तुम्‍हारे अस्‍पताल जाने के पहले वाली शाम․․․ मेरी एक पेन्‍टिंग को कोई अवॉर्ड मिला था, अब याद नहीं जाने कौन सा पर कोई महत्त्‍वपूर्ण किस्‍म का पहला सम्‍मान था। तुम्‍हारी नकारात्‍मक टिप्‍पणी पर पहली बार रोना नहीं आया था। मैं सेलेबे्रट करना चाहती थी, समकालीन दोस्‍तों के साथ जो सब के सब उभरते चित्रकार थे मगर तुम चीख पड़े थे․․․․ “अपने यार दोस्‍तों का अड्‌डा मत बनाओ इस घर को। भूल गई कि․․․” न जाने क्‍यों तुम दिन ब दिन चिढ़चिढ़े हो गये थे। जानती थी, बात-बात पर गुस्‍सा तुम्‍हारे बढ़ते ब्‍लडप्रेशर के लिये घातक था लेकिन मैं भी तो तंग आ गई थी। मैं ने जवाब दे दिया।
“कुछ नहीं भूली हूँ मधुसूदन। छोड़ो कुछ भी सेलेब्रेट नहीं करना मुझे। तुम जैलस हो रहे हो। मेरी सफलता किरकरी बन गई है अब तुम्‍हारे लिये, है ना!”
“उमा!” तुम्‍हें ठण्‍डे पसीने आ गये थे। आंख भर आई थी। पर हम प्‍यार की उस हद पर खड़े थे जहां कामनाओं की मुश्‍कें कस कस कर हमारे अडि़यल मन एक दूसरे को आहत कर के सुख पाते थे। अब जि़न्‍दगी की अपनी दलीलें बन गई थीं। सम्‍बन्‍धहीनता का पाट चौड़ा हो चला था। संघर्ष, अनुभव अब नॉस्‍टैल्‍जिया में बदल चले थे।
“उमा! ऐसा कैसे सोच सकी तू! मैं․․․ मैं जलूंगा तुझसे? मेरे नैगेटिव कमेन्‍ट्‌स तुझे परफेक्‍शन की बारीक हद तक पहुंचाने के लिये हुआ करते थे। उमा! आज चाहता था मैं कि तुम मेरे साथ सेलेबे्रट करो, पर कह न सका․․․ किस अधिकार से कहता?” इतना कहकर ही हांफने लगे थे तुम।
मैं ने दोनों हाथ थाम लिये थे तुम्‍हारे। एक दूसरे के सुख-दुख से पिघलते हम। दोस्‍तों को फोन कर दिया था न आने के लिये। तब तुमने बड़े चाव से अपना चांदी का सिगरेट केस निकाला था, उसमें दस उम्‍दा विदेशी सिगरेट्‌स थीं। एक-एक हमने पी। फिर शैम्‍पेन खुली। उस दिन, लम्‍बे अन्‍तराल बाद तुम्‍हारा जी चाहा था कि तुम पेन्‍ट करो․․․ तुमने जामुनी रंग में ब्रश डुबोया था। जामुनी, तुम्‍हारा मनचाहा रंग, तुम कहते थे ना कि मैं सांवली नहीं हूँ, सलेटी या नीली भी नहीं, लाल झांई मारती मेरी स्‍निग्‍ध त्‍वचा जामुनी रंग की है। मधु․․․ वह ब्रश डूबा ही रह गया था, कि मुझे एम्‍बुलेन्‍स बुलानी पड़ी थी। तुम अस्‍पताल गये ज़रूर थे․․․ मुझे पूरा विश्‍वास था तुम लौट आओगे एक यायावरी के बाद․․․ पर तुम नहीं लौटे मधुसूदन।
ना विसाल है, ना सुरूर है, ना ग़म है
जिसे कहिये ख्‍़वाबे ग़फलत वोह नींद मुझको आयी।
ऐसी ही किसी गफ़लत भरी नींद के जंगल में खो गये थे तुम।
इतने वर्षों के अन्‍तराल में हज़ार-हज़ार बार लगा कि चलो तुम तो नहीं लौटोगे मैं ही चली आऊं तुम्‍हारे पास। पर तुम्‍हारे इस सपने ने पूरा होने में वक्‍त लगा लिया। पासपोर्ट बन चुका है․․․ उम्र के दस्‍तखतों के साथ․․․ बस वीज़ा मिल जाये, बुलावा आ जाये तुम्‍हारा तो सफर की तैयारी करूं
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