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Thursday 12 September 2013

मनीषा कुलश्रेष्ठ की कहानी - उल्का

“आज तुम होते तो! होगे तो ज़रूर․․․ कहीं आस पास!”
देश के सर्वश्रेष्‍ठ चित्रकार का यह सम्‍मानित पुरस्‍कार लेते हुए 65 वर्षीया उमा सहाय की कांपती उंगलियां प्रशस्‍ति-पत्र को सहला रही थीं। सम्‍मान में ओढ़ाया गया पश्‍मीना शॉल उनकी झुकी जाती देह से फिसल गया। पास खड़े एक युवक ने फिर ओढ़ा दिया․․․ वह चुपचाप मंच से उसी युवक का सहारा ले उतर आईं। मन सघन भावों से अवरुद्ध हो चला था। आंखें नमी से झिलमिल कर रही थीं, देश के राष्‍ट्रपति के हाथों․․ इतना बड़ा प्रतिष्‍ठित सम्‍मान․․․ ऑडिटोरियम तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज रहा था। एक साथ उन पर बरसीं कैमरे की फ्‍लैशलाइट्‌स से उनकी आंखें बन्‍द हो रही थीं। लेकिन वे तो अतीत की एक गली के मुहाने पर आकर ठिठक कर रुक गई थीं।
समारोह समाप्‍त होते ही वे हॉल से बाहर भी न निकल सकी थीं कि पत्रकारों की भीड़ और टीवी चैनलों के बहुत सारे माईक उन्‍हें घेर चुके थे। पत्रकारों के सवालों के जवाब में क्‍या कहें, कुछ सूझ नहीं रहा था।
“उमा जी, इस पुरस्‍कार का श्रेय․․․।”
“अपने उस आराध्‍य को!”
“आपकी महान कला की प्रेरणा․․․?”
“ वही आराध्‍य!”
“रंगों व आकृतियों का यह संयोजन․․․?”
“प्रकृति और जीवन में उसी आराध्‍य की असीम कृपा का परिणाम․․․।”
“आपके आराध्‍य कौन हैं?”
एक पल की झिझक के बाद बोली, “आराध्‍य! इस निस्‍सीम में फैला है वह․․․․ चाहे उसे कृष्‍ण मान लें या शिव!”
“आधुनिक चित्रकला में बढ़ती नग्‍नता․․․”
इस सवाल के जवाब में सवाल ही था उसके पास कि� ‘नग्‍नता किसे समझते हैं आप लोग, प्रकृति ने कौन से आवरण ओढ़ रखे हैं?' लेकिन․․․ बड़े समारोह की थकान, पुरस्‍कार पाने की प्रसन्‍नता, ढेर सी बधाइयाँ लेते लेते सांस चढ़ आई थी․․․‘इस विषय पर फिर कभी बात करेंगे हम, कभी समय लेकर घर आना।' उस युवा महिला पत्रकार के कन्‍धे थपथपा कर हांफती हुई अन्‍य पत्रकारों से क्षमा मांगती हुई वह कार में बैठ गइर्ं। ड्राइवर कार ले कर चल पड़ा। ठण्‍डी हवा का बासन्‍ती झौंका, सड़क पर खिले गुलमोहर, पलाश और अमलतास․․․ आवारा उड़ते पीपल के भूरे पत्‍ते और दूर तक फैले आसमान की उत्‍पे्ररणा पाकर, उमा ने मन की एक छोटी सी खिड़की खोली․․․ वहां से कहीं मुड़ कर अतीत के एक संक्षिप्‍त अध्‍याय की पतली, नीचे को उतरती गली जाती थी․․․ वहीं से आवाज़ दी उसने ․․․
“सुन रहे हो! इतना सन्‍नाटा क्‍यों है? क्‍या तुम खुश नहीं?”
“․․․․․․․․․”
“अरे! तो तुम थे वहां!” वह हँसी। “हां पत्रकार चक्‍कर में तो पडे़ होंगे, बुढि़या सठिया गई है․․․ ज्‍़यादा ही कुछ स्‍पिरिच्‍युअल․․․ हर बात का जवाब आराध्‍य! क्‍या करती, पूरे समय ख्‍़याल बना रहा आपका।”
“․․․․․․․․․”
“तो और कौन है? हाँ, ․․․तुम ही तो मधुसूदन! और कौन?”
“․․․․․․․․․”
“चलो सेलेब्रेट करें। मधु, तुम्‍हारे जाने के बाद तुम्‍हारी मनपसन्‍द प्‍लम वाइन को हाथ तक नहीं लगाया मैंने․․․ चलो भले ही चल कर अपने उसी स्‍टूडियो में गिन लो अपने उस चांदी के सिगरेट केस में पूरी आठ सिगरेट्‌स हैं․․․। बस! तुम्‍हारे जाने के बाद मन ही नहीं किया उन्‍हें पीने का। हां, वैसा का वैसा ही रखा है उस स्‍टूडियो को मैंने․․․ एक चीज़ इधर से उधर नहीं की। तुम्‍हारा उस शाम जामुनी रंग में डुबोया ब्रश वैसा का वैसा रखा है। तुम्‍हारी मखमली स्‍लिपर․․․ उस ज़मीन पर बिछे गद्‌दे के पास यूं ही उतरी हैं․․․ कि हर बार मुझे लगता रहा कि तुम थक कर खीजकर ․․․ पार्टी से लौटते में यामिनी से झगड़ कर आओगे और जूते उतार कर इन्‍हें पहन कर इस बेतरतीब स्‍टूडियो में चहलकदमी करते-करते पूरा किस्‍सा बयां करोगे और फिर इन्‍हें उतार कर सैटी पर बैठ जाओगे। मैं अनमनी सी सुनती रहूंगी․․․ फिर देर बाद तुम्‍हें कुछ याद आएगा․․․
“क्‍या बना रही हो?”
“बसे ऐसे ही ज़रा․․․”
“ज़रा हटो तो पूरा दिखे। ․․․अं अच्‍छा है, रंग भी ठीक हैं․․․ पर कहीं यह नकल सी है किसी पहले देखी पेन्‍टिंग की․․․ उमा ․․․ कुछ तो ओरिजनल․․․
“․․․․․․․․․”
“बुरा मान गई न! भई, ऐसा कुछ बनाओ कि लोगों को नाम पढ़ने की ज़रूरत ही न पड़े वैसे ही कह दें ․․․ ओह उमा सहाय की․․․। तुम मेहनत नहीं करना चाहतीं․․․”
“मधु․․․ बस यह बता दो कि किसी पेन्‍टिंग की नकल है यह․․․․।” उसने बुरी तरह खीज कर कहा।
“वो तो याद नहीं पर पिछली किन्‍हीं एक्‍ज़ीबिशन में․․․ पर बुरा क्‍यों मान रही हो․․․?
“इस पेन्‍टिंग को आपने इसकी स्‍केचिंग से बहुत पहले से देखा था, बल्‍कि खाली कैनवास हम साथ लाये थे तभी आपसे डिसकस किया था इसके बारे में! तब तो बड़ा कह रहे थे ‘ओरिजनल है।'
“ए․․․ मज़ाक․․․”
“झूठ! यह मज़ाक नहीं था। आप दरअसल ध्‍यान ही नहीं देते मेरी पेन्‍टिंग्‍स पर․․․। आप बस अपनी अधूरी पेन्‍टिंग्‍स को मुझसे पूरा करवाने का अधिकार भर समझते हो और सारी दुनिया आपको सराहती है। आप हो ही बहुत क्रुएल! यामिनी जी ठीक ही झगड़ती रही हैं, आपसे। हमें क्‍या करना है अपने आपको प्रतिष्‍ठित करके? हम अमेचर्स हैं। आप ही को मुबारक कला का व्‍यवसाय!”
“लड़की, तुझे क्‍या पता तेरे लिये कितना बड़ा सपना देखा है मैंने।”
“हंऽह! पता है, पता है!” कह कर मैं ज़ोर ज़ोर से कॉफी फेंटने लगती।
कभी-कभी अपनी किस्‍मत पर गुस्‍सा आता था कि तुम मिल कहां से गये? मुझसे ये नामालूम से तार जोड़ ही क्‍यों लिये? कितना व्‍यवसायिक सा था रिश्‍ता हमारा․․․ व्‍यक्‍तिगत किस तरह बन गया? सीधी-सीधी नाक की सीध में अपनी जि़न्‍दगी का लक्ष्‍य तय कर जिये जा रही थी मैं! सुबह एक एडवर्टाइजिंग ऐजेन्‍सी में बतौर आर्टिस्‍ट काम करते हुए जे․ जे․ आर्टस कॉलेज की शाम की डिप्‍लोमा कक्षाओं में ‘आधुनिक चित्रकला' पढ़ा करती थी। तुम तो बहुत प्रतिष्‍ठित कलाकार थे और कभी कभी लैक्‍चर्स देने के लिये तुम्‍हें अतिथि के तौर पर बुलाया जाता था और तुम हमें बारीकियां सिखाते थे। कई बार तुम अपनी मीन मेख और साफगोई से हमारी नौसिखिया कलाकृतियों पर कोई तंज कर हमें सहमा देते थे। कितने अहंकारी लगते थे तब। पर सच यह था कि तुममें बनावट नहीं थी। तुमसे अपनी कला की बारीकियां भी छिपती नहीं थीं․․․ छोटी-मोटी टिप्‍स की तरह अपनी कला के गुर हममें यूं ही बांट जाया करते थे, उदारता से।
मुझे आज भी याद है जब, हम डिप्‍लोमा के छात्रों की कला प्रदर्शनी लगी थी․․․ कॉलेज ही में․․․ तुम मुख्‍य अतिथि थे। हमारे दिल कांप रहे थे․․․ न जाने क्‍या-क्‍या सुनने को मिलेगा․․․ क्‍या-क्‍या कमियां निकाली जायेंगी․․․ लेकिन तुमने हमारे वरिष्‍ठ सहपाठियों की तुलना में हमें बेहतर बताया था। हमारे बैच को सराहा था कि नई संभावनाओं और नये प्रयोगों और पूरी तैयारी के साथ चित्रकारों की नई फसल सामने आई है। खास तौर पर तुम्‍हें मेरी पेन्‍टिंग ‘सद्यः स्‍नात' पसन्‍द आई थी। पेन्‍टिंग से भी कहीं ज्‍़यादा ‘शीर्षक' पसन्‍द आया था। तुम मुस्‍कुराये थे, यह शीर्षक पढ़कर।
मेरे लिये नया था तुम्‍हारा शहर, बल्‍कि महानगर! मैं एक छोटे शहर की․․․ बल्‍कि एक चौड़े पाट वाली नदी के किनारे बसे बेतरतीब शहर की लड़की थी। जहां कला भी थी, संस्‍कृति भी थी․․․ मगर अपने पुराने और सौंधे स्‍वरूप में, चित्रकला तो एक परम्‍परा की तरह शहर की नब्‍ज़ में मौजूद थी। चित्र हिस्‍सा थे जीवन का। चाहे वह गोबर से लिपे आंगनों में रची अल्‍पना हो, मंदिरों की दीवारों पर बनी राधाड्डष्‍ण की लीलाओं के चित्र हों, गौशालाओं के आगे गोबर की बनी सांझियों में उकेरी आकृतियां हों, फूलों-गुलालों से बनी मंदिरों की रंगोलियां हों, या औरतों की देह पर बने गोदनों में उड़ते नीले तोते हों। चित्रों में ही हम सांस लेते थे, चलते थे, जीते थे।
चित्र परछाइयां थे हमारी। हर तीसरे दिन तो कोई तीज त्‍योहार होता है ब्रज में, हर तीसरे दिन मां का आँगन लिपता और चावल के आटे के एपन से मां की सुघड़ उंगलियां भीगतीं और मिनटों में वे कमल-हंस की अल्‍पना उकेर देतीं, हर पांचवे दिन ब्‍याह-सगाई वाले घर से पिताजी को बुलावा आता बारात के फड़ के चित्र बनाने हैं। द्वारा पर, दीवार पर, ग्‍वाड़ी की गोठ और गोखड़ों पर।
वहीं से मैं अपनी कला की सुघड़ बारीकियां, महलों- हवेलियों, मोर, हिरणों, बाघों के पेन्‍सिल स्‍केचेज़ और मिनिएचर किशनगढ़ शैली की सुनहली-रूपहली रेखाएं, पतले ब्रशेज, तरह-तरह की पारम्‍परिक पीतल की कलम और कलात्‍मकता लेकर आई थी कृष्‍ण - राधा के चित्रों की, पर नकार दी गई थी तुम्‍हारे शहर में। वहां परम्‍पराओं, बारीकियों का क्‍या काम था? वहां नित नये प्रयोगों को, चित्रों की नई परिभाषाओं को, आड़े-तिरछे चित्रों और अजीबों गरीब रंग संयोजनों में रचे बिम्‍बों को ‘चित्रकला की सार्थकता' कहा जाता था। तब मुझे लगा था कि अरे! मैं तो कुछ नहीं जानती चित्रों के बारे में । मुझे महसूस हो गया था, कि मुझे सब कुछ नये सिरे से सीखना होगा․․․। फिर से शुरुआत सीखने की!
तब काम ढूंढ़ा गया, एक कमरे का घर ढूंढ़ा गया या यूं कहो अपनी सारी जमा-पूंजी, पापा का भेजा पैसा लगा कर एक किराये के कमरे को घर बना लिया गया था। फिर जी तोड़ कोशिशों के बाद दाखिला मिला जे․ जे․ आर्ट्‌स कॉलेज की शाम की क्‍लासेज़ में। वही एक कमरे का घर मेरा घर- स्‍टूडियो दोनों था। फर्नीचर के नाम पर कुछ भी तो नहीं था एक कुर्सी तक नहीं! नीचे ही गद्‌दा बिछा कर सैटी- सी बना ली थी। हाँ, कई कैनवास, ईज़ल, रंग-ब्रश, पेन्‍सिलें, मोटी पतली कलमें, बड़ी बड़ी कलर टे्र ज़रूर उस कमरे को घेरे रहते थे।
वह अजीब-सा दिन था, जब तुम्‍हारा मेरे घर आने का सबब बना था। मैं एक प्रिन्‍ट एडवरटाईज़मेन्‍ट के लिये किशनगढ़ शैली में राधाकृष्‍ण का एक प्रणय चित्र बना रही थी। मुझे याद है, जाती हुई गर्मियों की दुपहर थी, अलसाई धूप तेंदुए सी, धब्‍बों-धारियों के साथ में क्‍लासरूम में पसरी थी। मानसूनी नमकीन हवाएं चित्रों के रंग सूखने ही नहीं दे रही थीं। मेरे सारे सहपाठी लंच बे्रक के लिये कैन्‍टीन गये हुए थे। मैं ठहर गई थी क्‍लास मेें ही, आज ही यह चित्र पूरा करके अगले दिन तक पूरी सीरीज़ ‘नवरोज़ एडवर्टाइजिं़ग एजेन्‍सी' में देकर आनी थी․․․ नहीं देती तो․․․․ कमरे का किराया और नया कैनवास खरीदने के पैसे कहां से जुटाती? तभी न जाने कब धूप के धब्‍बों पर चल कर तुम चले आये थे। चुपचाप मेरे पीछे आकर खड़े हो गये थे, सांस रोक ली थी क्‍या? मुझे भान तक नहीं हुआ था।
“यह तो तुम यहां नहीं सीखती हो!”
मैं हड़बड़ा गई थी। उठ खड़ी हुई थी। ब्रश छिटक कर दुपट्‌टे में उलझ गया था। नीले-हरियाले रंग बिखर गये थे, दुपट्‌टे की सफेद-स्‍याह ज़मीन पर।
“जी․․․ सर ․․․ जी नहीं।”
“फिर, कहां से सीखी यह शैली?”
“मथुरा․․․ अपने पिता से․․․।”
“वाह․․․”
कमरे में उमस बढ़ गयी थी, जब तुम चित्र को और करीब से देख रहे थे। मैं सफाई देने लगी।
“सर, मुझे यह सीरीज़ कल सुबह तक पूरी करनी है, और मुझे वक्‍त नहीं मिल पा रहा था․․․ इसलिये क्‍लास में․․․।”
“कहाँ देनी है?”
“सर! उस एडवरर्टाइजि़ग एजेन्‍सी में जिनका मैं बतौर आर्टिस्‍ट काम करती हूँ।”
“क्‍या ऐसी और भी हैं।”
“इस सीरीज़ में तो चार और हैं․․․ पर मिनिएचर्स में डोली, शिकरा बाज़, नूरजहां, दारा शिकोह, महाराणा प्रताप वगैरह और भी बने रखे हैं।”
“दिखाओगी?”
“कल ले आऊंगी सर।” तुम्‍हारी उत्‍सुकता पर मुझे आश्‍चर्य हुआ था।
“आज ही दिखा दो।”
“․․․․․․․․․”
“दिखा भी दो भई।”
“सर! घर मेरा दूर है, घाटकोपर․․․ वहां से जाकर लाना․․․।”
“लाना क्‍यों․․․ वहीं चल कर देखते हैं।”
मैं हतप्रभ थी। कुछ समझ नहीं आ रहा था। ऐसा क्‍या था इन पारम्‍परिक चित्रों में? ये तो अपने स्‍थानीय कलाकार पिता से बचपन से सीखी थी। मन्‍दिरों के बाहर ऐसी पेन्‍टिंग्‍स खूब बिकती थीं, पूरे मोल-भाव के साथ। ऐसी पेन्‍टिंग्‍स के लिये कोई एक्‍ज़ीबिशन नहीं लगा करती!
गलियों में घुस कर तुम्‍हारी इतनी लम्‍बी कार कहाँ तक आती, सो सड़क पर दूर ही कार खड़ी कर के हम दोनों पैदल इस घाटकोपर की एक मोहल्‍लेनुमा कॉलोनी में पहुंचे थे। वह एक बहुत पुराना घर था, जिसके पीछे के बदबूदार खुलते हिस्‍से में मेरा कमरा था। मैं हिचक रही थी, पर तुम सहज थे। वही स्‍टूडियो․․․ वही बेडरूम, वही रसोई, वही बैठक․․․ संकोच से मैं गड़ी जा रही थी․․․ पर तुम सहज थे․․․ गलियों में ऐसे चलते आये थे मानो वे बहुत जानी पहचानी हों․․․ हमारे पीछे पीछे मुहल्‍ले के कुछ उत्‍सुक बच्‍चे भी चले आये थे। जिन्‍हें आंख दिखाकर मैंने भगाया था। तुम आराम से जमीन पर बिछे बिस्‍तर पर बैठ गये थे।
“वाह! यही चीज़ मैं सीखना चाहता था।”
“आप?” आश्‍चर्य से मेरी आंखें फैल गई थीं।
“हाँ, एक तो ये, और दूसरे पेन्‍सिल स्‍कैचिंग की वह कला जो राजस्‍थान के स्‍थानीय कलाकार किलों, बावडि़यों, खण्‍डहरों को देखकर मिनटों में बना देते हैं। रणथम्‍भौर का वह पुराने खण्‍डहर से किले के बुर्ज पर बैठे बाघ का वह बड़ा सा पेन्‍सिल स्‍केच मुझे मेरी एक विदेशी मित्र ने दिखाया था। तब से चाह थी कभी ऐसे अद्‌भुत स्‍थानीय कलाकारों से मिलूं। पर यह शहर वक्‍त कहाँ देता है यायावरी का?”
“सर․․․ यह कलाएँ कलाकारों केपरिवारों में, स्‍थानीय कला विद्यालयों में अंतिम सांसें ले रही हैं।”
“तुम मुझे सिखाओगी?” तुम उन चित्रों को घूरते हुए बोले थे।
“मैं!”
तुमने मुझसे जो सीखा, सो सीखा․․․ मैंने तुम्‍हें सिखाते में जाने कितना सीख लिया था․․․ मैं क्‍या सिखाती तुम्‍हें? बस एक प्राचीन चित्रकला शैली की थोड़ी बहुत जानकारी भर ही दे सकी थी। बाकि बारीकियों की कमी तुममें कहां थी? वह खास अन्‍दाज़ में सुनहरे-रूपहले रंगों का बारीक प्रयोग, राधा - कृष्‍ण की वही किशनगढ़ शैली के नैन नक्‍श, जेवर, केले और आम के वृक्ष, नहरें, फव्‍वारे, महल, गलियारे, नहरों में खिलते कमल, वे अनूठे बादल, वन, फूलों के झाड़, तोते, मोर, पुष्‍ट स्‍तनों वाली अभिसारिकाएं झट से बनाना सीख गये थे तुम। गुरूदक्षिणा के नाम पर चौंकाया था तुमने जब एक पॉश सबर्ब की अच्‍छी कॉलोनी में मुझे अपना एक खाली पड़ा स्‍टूडियो मुझे मुम्‍बई में ‘जब तक चाहूं तब तक रहने' के लिये दे दिया था। इस गुरूदक्षिणा में मुझे जो अनजाने-बिनमांगे मिला वह था इतने दिनों का सार्थक साथ और एक पारदर्शी मित्रता। हाँ, तुमने सहज ही अपना मित्र कह दिया था मुझे․․․ सबसे कम उम्र मित्र! मैं कितना खुश थी एक नामचीन चित्रकार की मित्रता पाकर।
तुमने इन चित्रों पर प्रदर्शनी लगाने से पहले पूछा था�
“मैं इसमें कुछ नये प्रयोग करना चाहता हूँ? इजाज़त दोगी?”
“मेरे पिता होते तो नहीं देते․․․ वे सिखाते इसी शर्त पर कि इस शैली का स्‍वरूप विकृत न हो। पर अब क्‍या सर․․․ अब तो हर चीज़ का व्‍यवसायीकरण हो गया है।”
इस शैली को लेकर किये गये प्रयोग अनूठे ही थे तुम्‍हारे, तम्‍हारी ही तरह। पहली बार मेरे गाल लाल हो गये थे जब तुमने अपना प्रथम प्रयोग मुझे दिखाया था। प्रणयरत राधा - कृष्‍ण की पेन्‍टिंग में एक घने पेड़ों का जंगल भी सही था, उस पर ब्रश के अलग तरह के प्रयोग से सुर्ख फूल भी सही उकेरे थे, रात के प्रहर में नहर की लहरों को सलेटी दिखाना भी उचित था, पेड़ों के झुरमुट में सोते पंछियों के घोंसले भी अपनी जगह ठीक थे। तनों के कोटर से झांकते तोते और उस झुरमुट में धरती पर बिछा सूखे-गीले पतझड़ी पत्त्‍ाों का बिछौना भी․․․ चलो ठीक ही था, कृष्‍ण के तीखे नैन, मोर पंखी मुकुट और राधा की मराल ग्रीवा सी लहराती बांहें, पैरों का सुर्ख आलता भी अच्‍छा बना था। पर․․․ गाल तपने लगे थे, गला सूख गया था, हथेली पर ब्‍लेड चला देते तो वहां तुम्‍हें मेरा बहता खून नहीं मिलता․․․ जम गया था। माना प्रणयरत युगल का चित्र था, निर्वसन, आलिंगनब(, प्रणयरत राधा कृष्‍ण को भी मैंने पापा की स्‍टील की से़फ में बन्‍द रहने वाली और हजार रुपये में बिकने वाली पेन्‍टिंग्‍स में देखा था। पर तुमने यह क्‍या किया था․․․ छिः।
“छिः क्‍या? हां, इसमें गलत क्‍या है?क्‍या विपरीत रति नहीं पढ़ा तुमने घनानंद-बिहारी की कविताओं में? मथुरा की हो, मंदिरों के आस-पास रहती हो, क्‍या वैष्‍णव कविताएं नहीं सुनीं? वे भी तो कृष्‍ण-राधा ही हैं, अपने चिरंतन स्‍वरूप में और ये भी!”
मैं निरुत्त्‍ार। क्‍या कहती तुम्‍हें कि� सब कुछ देखा- पढ़ा- सुना था मधुसूदन लेकिन तुमने कहां पढ़ लिया यह सब? मैं ने तो उसे भक्‍ति के अतिरिक्‍त कुछ नहीं माना था किन्‍तु वह जो तुमने पेन्‍ट किया था वह बहुत दुनियावी किस्‍म का प्रणय व्‍यापार लगा था। तुमने तो वैसे ही चित्रों की एक पूरी सीरीज़ निकाल दी प्रण्‍य की भिन्‍न- भिन्‍न मुद्राओं में राधा-ड्डष्‍ण के मिनिएचर्स, असली सोने और चांदी के रंगों के अनूठे प्रयोग किये थे तुमने। तुम्‍हारे अगले एक्‍जि़बिशन में वे सारी खूब सराही गइर्ं। बिकीं भी हाथों हाथ महंगे मूल्‍यों में। मुझे तब बहुत गुस्‍सा आया था तुम पर लेकिन मुझे उस नरक जैसे घर से निकल, शीघ्र ही इस स्‍टूडियो में आना था सो मैं ने तुमने कुछ नहीं कहा। तुम्‍हारा इस शैली को देखने की जुनून जल्‍द ही उतर गया। फिर लम्‍बे समय तक तुमने कुछ नहीं बनाया। यामिनी और अपने बिखरते दांपत्‍य को लेकर बहुत परेशान थे तुम।
उसके बाद अगर तुमने कुछ बनाया भी तो अधूरा छोड़ दिया। मैं ही उन अधूरे चित्रों को कबाड़ से उठा-उठा कर पूरा किया करती थी। दरअसल यह स्‍टूडियो जो तुमने मुझे दिया था, वह तुम्‍हारे कबाड़ रखने के लिये ही तो इस्‍तेमाल होता रहा था। तुम इतने चतुर थे कि अपने उन अधूरे कैनवासों को मेरे पूरा कर देने के बाद उन्‍हें ज़रा सा अपना स्‍पर्श दे कर प्रदर्शनी लगा कर बेच लेते थे। हज़ारों में बिकते वे․․․ तुम्‍हारे नाम से। मुझे आपत्त्‍ाि नहीं थी, मेरा अभ्‍यास भी हो जाता और अहसान भी उतरता था।
यामिनी से तुमने चाव से ब्‍याह किया था, पे्रम विवाह! वह कथक नर्तकी तुम चित्रकार․․․ बड़ा रोमान्‍स था इस बन्‍धन की कल्‍पना मात्र में, तुम बताया करते थे। कितनी-कितनी भाव-भंगिमाओं में नृत्‍यरत यामिनी के चित्र तुमने बनाये मगर उन्‍हें कभी प्रदर्शित नहीं किया। न बेचा। उसकी नृत्‍यशाला के भव्‍य हॉल में सजते थे वे कभी․․․ लेकिन आज धूलधूसरित वे मेरे इसी स्‍टूडियो के स्‍टोर में उल्‍टे पड़े हैं, वैसे ही जैसे कि तुम उस रात उन्‍हें गुस्‍से में पटक गये थे।
उस काल्‍पनिक बंधन में जो रोमान्‍स था वह असल जि़न्‍दगियों में क्‍यों नहीं चला? मैंने मधु तुमसे कभी पूछा भी नहीं। तुम जब यामिनी से नाराज़ होकर यहाँ आकर प्रलाप किया करते थे उसमें से मैं कुछ हिस्‍सा ही सुनती थी, कुछ कानों में जाकर भी अनसुना-अनबूझा रह जाता। सुना हुआ अंश भी कुछ बहुत उथला लगता था। ऐसा लगता था तुम पति-पत्‍नी नहीं, मानो दो सियामीज़ जुड़वां हों। साथ रहने की विवशता और अलग होने की छटपटाहट! साथ रहने की विवशता के बीच में दोनों को जोड़ती किशोर होती बेटी थी। कभी दोनों अपनी-अपनी जगह गलत लगते, कभी सही। तुम दोनों ही बेचैन आत्‍माओं वाले कला के अभूतपूर्व सर्जक․․․ दोनों के दोनों अतिमहत्त्‍वाकांक्षी थे। तुम दोनों ही अपने - अपने आसमान के चमकते सितारे थे, मैं एक अदना सा उल्‍का!
मैं थी ही कौन? तुम्‍हारी कोई नहीं। एक शिष्‍या शायद? या वह भी नहीं। तुम तो कभी यूं ही चले आते थे हमारे कॉलेज! ऑनरेरी प्रोफेसर बन कर कभी कभार। मेरे पास तुम्‍हारा दिया हुआ स्‍टूडियो था, उसके बदले में मुझे तुम्‍हें सुनना होता था, उस स्‍टूडियो की सुविधाओं व शांति के बदले मैं तुम्‍हें घण्‍टों सुन सकती थी, इसके सिवा और कोई लेना-देना नहीं था तब तक तो हममें - तुममें!
फिर भी तुम्‍हारा तुर्श व्‍यक्‍तित्‍व मुझे आकर्षित करता था। बेतरतीब दाढ़ी, ओजस्‍वी पेशानी, सलेटी -हरे -नीले रंगों की परछाइयों में तैरती आंखें, जिनके नीचे हमेशा रहने वाली एक सूजन। अच्‍छे से आकार वाले थोड़े पृथुल होंठ जो सिगरेट से जल कर लाल से कत्‍थई-सलेटी हो चले थे। तप कर निखरे कांसे का सा रंग। लापरवाही से सहेजी देह, दुबली - पतली।
उन्‍हीं बिना लेन-देन वाले दिनों में । एक निर्लिप्‍त, निस्‍पृह आकर्षण, चुप्‍पे प्रेम को महसूस करते हुए․․․ थरथराते दिनों में, मैं तुम्‍हारे और यामिनी के बीच गेहूँ बीच घुन की तरह पिसी थी। हर बार की तरह झगड़ कर तुम मेरे पास आये थे। ;तब मैं सोचती थी तुम्‍हारा कोई दोस्‍त नहीं होगा, पर सच तो ये था कि तुम्‍हारे दाम्‍पत्‍य के झगड़े सुनने को मैं ही एक बची थी जो बिना प्रतिवाद किये लगातार सुनती थी।द्ध पीछे-पीछे यामिनी आ गई। मैंने उन्‍हें उनके चित्रों के बाहर पहली बार देखा था।
“तो ये है तुम्‍हारी ‘नई वजह'। ” उनकी भावप्रवण आंखों में प्रगल्‍भा नायिका की सी ईर्ष्‍या कम रौद्र रस प्रधान था․․․। काजल से लदी बड़ी-बड़ी अभिनयग्रस्‍त आंखें, मानो तब भी भस्‍मासुर मर्दन का दृश्‍य अभिनीत कर रही हों।
मैं सच में बुरी तरह सहम गई थी।
“उस मासूम को बीच में मत घसीटो। यह तो बस यहां रह रही है।”
“गई नहीं तुम्‍हारी जवान लड़कियों को दोस्‍त बनाने की आदत? पहले वह तूलिका․․․ अब यह․․․।”
“मुझे भी अपना- सा समझा है। हर डान्‍स ट्रिप पर एक फिरंग अनुभव! फिर आकर कहती हो कि क्‍या हुआ अगर भूख लगी तो बाहर एक बर्गर खा लिया तो! हाइट्‌स ऑफ डबल स्‍टैर्ण्‍ड्‌स।”
“तो कहो न तुम भी․․․ भूख लगी तो․․․ बाहर! प्‍यूरिटान होने का नाटक फिर क्‍यों․․․”
“बकवास मत करो यामिनी, इस बच्‍ची को बख्‍श दो। चलो घर।”
“बच्‍ची!․․․”
तब तक मैं अन्‍दर जाकर उनके लिये पानी ले आई थी। उन्‍होंने चुपचाप पी लिया था। पता नहीं क्‍यों पानी पीकर, मेरे साधारण चेहरे, साधारण आंखों में झांक कर उन्‍हें अपने पति पर तो नहीं लेकिन मुझी पर हल्‍का सा यकीन आ गया था। वे चुपचाप तुम्‍हारे साथ चली गई थीं। उसके बाद जब मिलीं एक आत्‍मीयता से।
उनके- तुम्‍हारे झगड़े फिर कभी सुलझे ही नहीं। रम्‍या, तुम्‍हारी बेटी बड़ी हो रही थी और तुम दोनों तलाक की सोच रहे थे किन्‍तु तुम दोनों ही ऐसा नहीं कर सके। कलाकार थे दोनों․․․ किसी सम्‍बन्‍ध को तोड़ कैसे सकते थे, वह थी पेपर्स पर लिख कर साइन करके। तुम दोनों से एक दूसरे को बिना लिखत-पढ़त स्‍वतन्‍त्र कर दिया था। मैं ने तुम्‍हें बुरी तरह टूटा देखा, तुम रम्‍या के लिये तरसते थे, वह घर जिसके होने का सुख यामिनी से जुड़ा था, समाप्‍त हो गया।
मैंने तुम्‍हें महीनों नहीं देखा। चित्रा ने ही एक बार बताया था कि- मधुसूदन सर आजकल पुरानी लाइब्रेरियों की खाक छान रहे हैं, वेद पुराणों और उपनिषदों के अलावा पुरानी पाण्‍डुलिपियों को पढ़ रहे हैं। मुझे पता था टूटन के दिनों में तुम्‍हें उपनिषदों का दर्शन बहुत आन्‍दोलित किया करता था, तब तुम आध्‍यात्‍म के सुर में बात किया करते थे। बड़े वाले स्‍टूडियो में ही रहते, पीते थे․․․ पर उस बार जब तुम इस हायबरनेशन से निकले तो कला का एक अनमोल खज़ाना लेकर। उपनिषद के यक्ष प्रश्‍नों को बहुत मुखर रूप से पेन्‍ट किया था। अद्‌भुत था वह सब, वे चित्र बोलते थे, प्रश्‍न करते थे और समाधान भी। कितनी समीक्षाएं, कितने पुरस्‍कार! कितना नाम हुआ था। देश के सर्वश्रेष्‍ठ चित्रकारों में नाम शुमार हुआ। लेकिन तब तक पैसों के प्रति तुम्‍हारा मोहभंग हो चुका था․․․ तुमने कितने ही अनमोल विशाल चित्र स्‍वयंसेवी संस्‍थाओं को, सरकारी कला वीथिकाओं को दान कर दिये। अखबारों के मुखपृष्‍ठों पर, चित्रकला के अन्‍तर्राष्‍ट्रीय जरनलों पर तुम्‍हारा नाम और चित्र छाये रहे।
मैं अब भी हाथ-पैर मार रही थी, जीविकोपार्जन, कला साधना, कला के क्षेत्र में प्रतिष्‍ठा का प्रयास - तीनों के लिये। मैं ने मान लिया था कि तुम भूल गये होंगे अपने इस अकिंचन परिचिता को। एक बार मिले थे तुम उन ख्‍यातिनाम दिनों की शुरुआत में, तुम्‍हारी एक्‍जीबिशन थी जहांगीर आर्टगैलेरी में। हॉल में एकदम तुम्‍हारे सामने, तुम्‍हारे कुछ परिचितों के साथ मैं भी खड़ी थी, तुम मुझ पर एक ठण्‍डी-रीती हुई दृष्‍टि डाल कर एक भीड़ के साथ मेरे सामने से यूं निकल गये थे, जैसे मैं पारदर्शी दीवार होऊं। मेरे लिये तुम्‍हारा वह व्‍यवहार नया नहीं था, मैं थी ही क्‍या एक ज़र्रा और तुम कहां एक हस्‍ती! ना, मुझे बुरा नहीं लगा था। मैं ने तो मान ही लिया था कि तुम भूल गये हो, अपनी सबसे कमउम्र दोस्‍त को। फिर भी एक उम्‍मीद थी कि कभी इस स्‍टूडियो को खाली करवाने या इस स्‍टूडियो में पड़े अपने चित्रों की याद आने पर․․․ कभी तो आओगे ही।
तुम्‍हारी ख्‍याति के उन चमकीले दिनों के फीके पड़ने के कुछ दिन बाद तुम आये भी, स्‍टूडियो को खाली करवाने या किसी अन्‍य काम से नहीं, मुझसे मिलने। क्‍योंकि बहुत दिन बाद तुम्‍हें अदरक वाली चाय की याद आई थी, लगातार बरसात की वजह ठण्‍ड हो गयी थी, भूट्‌टे बिकना शुरू हो गये थे। इधर से गुज़रे तो वही कुछ याद आ गया था। मैं․․․ मेरे बहाने यामिनी․․․ यामिनी के बहाने․․․ मैं। मोती के मनके थे कहीं से भी फेर लो।
“क्‍या चल रहा है?”
“कुछ खास नहीं, वही फ्रीलान्‍स काम और एम․ए।
“एम․ए․ किसलिये? आर्टिस्‍ट हो, प्रोफेसर बनना है क्‍या?”
“कुछ नया सीखने को मिलेगा।”
“कुछ नया- वया सीखने को नहीं मिलेगा। वहाँ यूनिवर्सिटी में सब गधे बैठे हैं। वो तुम जैसी कलाकार को क्‍या सिखायेंगे? सीखना था जो सिख लिया, अब अपनी शैली बनाओ और अपना पी․आर․ डैवलप करो, लोगों से मिलो, स्‍वयं को स्‍थापित करो। तुम में जो सच की कला है, भारतीय संस्‍ड्डति को भीतर तक जानने का जो अनुभव है, वह आज दुर्लभ है। उसे उकेरो, सामने लाओ। तुम्‍हारी टे्रनिंग पूरी है बस लोगों के सामने आने की ज़रूरत है।”
“मैं तो कुछ भी नहीं हूँ। मेरे साथ के स्‍टूडेन्‍ट्‌स․․․”
“रबिश! वो चित्रा खाक कलाकार है? बस उसे लोगों को सीढि़यां बनाना आता है, अच्‍छी अंगे्रज़ी आती है, स्‍टायल है उसमें। हरेक को खास महसूस करवा देती है। तुम्‍हारी तरह थोडे़ ही कि एक कोने में बैठ कर बढि़या पेन्‍टिंग्‍स बना लीं और मुंह पर ताला लगा लिया। एडवर्टाइज़मेन्‍ट एजेन्‍सीज़ के दरवाजे जा-जा कर अपनी कला बेच लोगी पर बड़े स्‍तर पर अपनी कला बेचना नहीं आयेगा।”
मैं तमतमा गयी थी पर वे शायद मुझे उकसा ही रहे थे तमतमाने को । ऐसा वे करते आये थे।
चाय के बाद, भुट्‌टा भी सिका। फिर मधुसूदन तुमने अपनी पुरानी कबर्ड खोल अपना ड्रिंक भी बना लिया, बाहर से खाना भी आ गया लेकिन बातें खत्‍म नहीं हुइर्ं। बहुत अरसे की अकुलाहट थी, इसीलिये मैं याद आई थी। ज़माने भर की, कला की, कलाकारों की बातों का अन्‍त हो चुका था पर अकुलाहट कहीं शेष थी। उदासी किसी किसी की आँखों में जंचती है। उदासी तुम्‍हारी आंखों में झलमल जगमगाती। सुखी होने का नाटक कौन नहीं करता? पर दुखी होने के लिये नाटक की क्‍या जरूरत। वह तो छलक जाता है हँसी में भी। तुम्‍हारी आंखों का गीलापन जिन्‍दा मछली की देह पर तिरता गीलापन था।
कभी न कभी तो काठ का कलेजा भी फटता है न!
मेरे आगे कभी-कभी तुम मोमबत्त्‍ाी की तरह पिघलते बूंद बूंद। उस दिन भी पिघले बहुत देर बाद सिगरेट के धुएं के गुबार से कुछ बेचैन शब्‍द निकले� “उमा, यामिनी यू․एस․ जा रही है।” मैं खाना गरम कर रही थी। स्‍टूडियो के हल्‍के धुएं से भरे अंधेरे में से बहुत ठण्‍डी आवाज़ में तुमने कहा।
“तो․․․ क्‍या हुआ। जाती ही रहती हैं वे तो। परफॉरमेन्‍स होगी।” बिना मुड़े, मैं ने आवाज़ में छिपी टूटते घर की दीवारों की अर्राहट को सुन लिया था पर मैं ने न समझने का अभिनय किया।
“ना․․․ यूं ही नहीं․․․ रम्‍या को लेकर। हमेशा के लिये।”
“क्‍यों?”
“कोई है।”
“कौन?”
“जिससे वह शादी कर रही है। एक बिज़नेसमेन।” उसके बाद तुम खामोश हो गये। मैं तुम्‍हारी खामोशी को कुरेदना नहीं चाहती थी। तो यह बात थी, जो मधुसूदन तुम्‍हें बरसों बाद उमा को बताने की अकुलाहट हुई थी। मैं उमा तुम्‍हारे बिखरते दाम्‍पत्‍य की राज़दार। मैं जो इस राज़दारी को, इस दोस्‍ती का फायदा नहीं उठा सकी। मैं जो तटस्‍थ थी, सुनकर भी नहीं सुनती थी उन जी मिचला देने वाली बातों को।
तुम ड्रन्‍क थे, थोड़ा सा खाना खाकर उसी सैटी पर सो गये थे, जहाँ मेरे सोने का ठिकाना था। मैं मूढ़े पर बैठी रही देर तक, फिर थक कर वहीं बगल में चादर बिछा सो गयी। मेरा मन बहुत घबरा रहा था, लोग क्‍या सोचेंगे इस बात की चिन्‍ता नहीं थी। तब चित्रकारों के किस्‍सों-प्रेम प्रसंगों को अखबारों के तीसरे पन्‍ने पर कोई जगह नहीं मिला करती थी लेकिन मुझे ही किसी पुरुष के सान्‍निध्‍य की यूं आदत नहीं थी। तुम्‍हें बताया तो था․․․ कभी या पता नहीं․․․ पिता के पास सोना पांचवी कक्षा के बाद से छोड़ दिया था। और फिर तब से अब तक पुरुष प्रसंग से कोरा ही रहा था मन। साधारण चेहरा मोहरा, कभी किसी लड़के ने नहीं जताया कि मैं भी रुचि लेने लायक लड़की हूँ। बी․ए․ में शादी का प्रसंग चला तो चार-पांच बार नकार दिये जाने पर मां के खिलाफ जाकर․․․ पापा की शह पर बम्‍बई चित्रकला पढ़ने आ गई थी।
अजीब सी स्‍थिति थी उस रात मधु। कभी स्‍वीकार नहीं किया, आज करने दो। हां तो․․․ तुम्‍हारी बगल में उस चादर पर लेटे लेटे मन कह रहा था कि “कहीं इस आदमी ने․․․ पकड़ लिया तो।” पर यह बात डरा कम रही थी, रोमांचित ज्‍़यादा कर रही थी․․․ पर फिर भी मैं अपने वाक्‌ अस्‍त्र पैने कर रही थी, मसलन� “मुझे चित्रा समझ लिया है? मैं इस कीमत पर तो कतई अपका नाम लेकर आगे बढ़ना नहीं चाहती। कितना विश्‍वास किया․․․ अभी निकलें यहां से․․․ और अगर यह आपका स्‍टूडियो है तो मैं ही निकल जाती हूँ।” पर एक अनजानी कामना के आगे ये अस्‍त्र भौंथरे थे मधु। पर तुम उतने ही गरिमामय थे जैसा मैं ने आरम्‍भ से तुम्‍हें जाना था। रात बीतती जा रही थी, सुबह की आहट ठिठकी थी। तुम बेसुध। मैं प्रसन्‍नता और तुम पर गर्व, एक संतोष के साथ-साथ कहीं व्‍यग्र भी थी। उस तुम्‍हारे द्वारा स्‍वयं को पकड़े जाने की क्षीण सी उम्‍मीद खत्‍म हो रही थी। न जाने कब नींद आ गयी। उठी तो तुम नहीं थे। इज़ल पर लगे खाली कैनवास पर ‘सॉरी' का नोट चिपका था। वह सॉरी किसलिये था मधु?
फिर तुम अक्‍सर साधिकार मेरे स्‍टूडियो आते रहे थे। तुम्‍हारा दूसरा बहुत बड़ा स्‍टूडियो मेरे लिये अब तक रहस्‍य है। पहले सुना था उसमें कइर्ं कमरे हैं, दीवारों की साइज़ के कैनवासेज़, उसी स्‍टूडियो में तुम्‍हारी सारी महान पेन्‍टिंग्‍स बनी थीं। सुना, अब वहां एक विशाल बुटीक खोल लिया है तुम्‍हारी भान्‍जी ने। धीरे-धीरे लोग तुम्‍हें भूलने लगे हैं मधु। और मैं․․․ मेरा क्‍या है․․․ मैं तो वही उल्‍का हूँ� तुम्‍हारी लगातार घूमती व्‍यस्‍त दुनिया में जाने कहां से टूट कर आ गिरा एक पिण्‍ड! जो तुम्‍हारी परिक्रमाओं में खलल डाले बिना तुम्‍हारे चारों ओर नामालूम सा घूमता रहा․․․ बल्‍कि आज भी घूम रहा है, इस निर्वात में तुम्‍हारी उपस्‍थिति के महज आभास के चारों ओर! ठीक उसी तरह जैसे अंतरिक्ष में उल्‍का पिण्‍ड घूमते रहते हैं पृथ्‍वी के चारों ओर। अगर पृथ्‍वी की कक्षा में घुसे तो अद्‌भुत चमक के साथ जलकर खाक हो जाते हैं।
तुमने मुझे उस बड़े स्‍टूडियो आने के लिये सदैव अनुत्‍साहित किया। स्‍वयं तो कभी लेकर गये नहीं। लोग उड़ाते थे कि वहां तुम्‍हारे लिये कुछ लड़कियां न्‍यूड मॉडलिंग करती हैं। मैं ने तुम्‍हारी पेन्‍टिंग्‍स में तो वह तत्‍व कभी देखा नहीं। शायद पापा की तरह ही․․․ जो प्रणयरत पेंटिंग्‍स वे हम सब से छुप कर जाने कब बनाते थे, जाने कब वे बिक जाती थीं। वो तो गलती से एक बार मैं ने उनकी अनुपस्‍थिति में अलमारी खोल ली थी। पतली कलम निकालने के लिये। प्रेम का वह पक्ष मुझे तब भी उद्वेलित कर गया था।
तुमने आगे बढ़ कर राह खोल दी तो मुझे पैर बढ़ाने को नई दिशाएं मिलीं। मुझमें मीडिया के लोगों और कला समीक्षकों से सम्‍पर्क करने की तमीज़ थी, न भाग दौड़ करने की ताकत व साधन, न ही पैसा। तुमने मुझे सिखाया अपनी राह बनाना, तुमने मेरी सहायता की पहली एक्‍ज़ीबिशन लगाने में, हां, मानसिक, शारीरिक और आर्थिक सहायता। साथ ही तुमने मुझे सिखा दिया सिगरेट पीना, वाइन पीना। वह सब उसी स्‍टूडियो की चारदीवारी में ही हुआ करता। ढेर सी बातों के बीच। तुमने बनाया आत्‍मविश्‍वासी। मेरी पहली पेन्‍टिंग तुम्‍हीं ने खरीदी थी। लोग मुझे पहचानने लगे थे। मेरी सफलता में तुम सदा नेपथ्‍य में रहे। हमारा नाम कभी जुड़ा नहीं। दो किनारे नहर के जिनके बीच बहता ज़रूर था एक रिश्‍ता पर उस रिश्‍ते का नाम नहीं था, कोई पहचान नहीं थी। तुम्‍हें उसकी ज़रूरत भी नहीं थी। लेकिन तुमने मुझसे भी नहीं पूछा कि मुझे इस पारदर्शी रिश्‍ते को कोई रंग देने का मन करता है क्‍या? जिस दिन दुनिया के बीचों-बीच तुम मुझसे अनजान बन कर कतरा जाते थे, उसी शाम हम साथ अदरक की चाय पीते, रात को सिगरेट और वाइन के बाद फिर ड्राई फूट खाते। फिर दो मर्द दोस्‍तों की तरह इधर-उधर मुंह करके सो जाते।
उस ज़माने में लिविंग इन रिलेशन दुर्लभ था, लेकिन हम साथ रहते थे स्‍वच्‍छन्‍द हो कर। शायद वह लिविंग इन रिलेशन ही था, बिना किसी जि़म्‍मेदारी, बिना किसी बन्‍धन के․․․ जहां देह की भूमिका शून्‍य थी। तुम आधार बने, तुम साथी बने, तुम प्रेरणा बने तो मन के उस नितान्‍त खाली गर्भगृह में स्‍थान कैसे न पाते? जब तुमने जाना तो खीज कर रह गये थें
“और तुम जैसी मध्‍यमवर्गीय मानसिकता वाली लड़कियां और क्‍या कर सकती हैं। शादी कर लो, किसी को प्‍यार कर लो। मन ही मन चाह लो। मैं सोचता था अलग किस्‍म की लड़की है․․․ इस बेबाक, बेरोकटोक साथ में प्रेम और लगाव जैसे शब्‍दों का घिसा हुआ घटियापन नहीं घुसाएगी। बल्‍कि मैं ने तुझे लड़की नहीं दोस्‍त सबसे कमउम्र दोस्‍त माना।”
तब मुझे पहली बार लगा था कि मैं देखने में बहुत ही साधारण नहीं बल्‍कि बदसूरत ही हूँ। किसी को आकर्षित नहीं कर सकती। मुझसे दोस्‍ती की जा सकती है, पर․․․ प्‍यार व्‍यार․․․ नहीं। मन खिन्‍न रहा था। और मैं ने बहुत ही मटमैले रंग लेकर टूटी चारपाई पर लालटेन लिये एक छोटे वक्षों वाली, काली बदसूरत लड़की बनाई थी। तुम्‍हारे पूछने पर कि“यह क्‍या है? मैं ने कहा था, “सेल्‍फ पोर्ट्रेट है।” तुम भुनभुना कर रह गये थे।
“मुझे पता है मैं सुन्‍दर नहीं पर․․․”
“हाँ, तुम सुन्‍दर नहीं हो․․ सुन्‍दरता मैं ने देखी है․․․।” तुम्‍हारी आँखों में एक पुराने गुमनाम प्रेम का कपाट खुलने को आतुर था। पहले प्रेम का․․․ अपनी पहली प्रेरणा का․․․ तुम्‍हारी मुफलिसी और गुमनामी के दिनों का․․․ जब तुम समुद्र किनारे लोगों के पोर्ट्रेट बनाया करते थे․․․ मेरी ही तरह मुम्‍बई के किसी सबर्ब में पुराने मुहल्‍ले के एक खण्‍डहरनुमा मकान की बरसाती में रहते थे। शायद वह लड़की तुमसे उम्र में बड़ी थी। ईसाई थी या एंग्‍लोइंडियन। वैसे मैंने हमेशा महसूस किया कि गोरे-सफेद रंग का तुममें ऑब्‍सेशन था। तुम्‍हारे चित्रों की हर स्‍त्री आकृति बिलकुल सफेद होती है, छोटे पंजों वाली!
“हाँ, जो मुझे एक बार देखता है मुड़कर ज़रूर देखता है।” मैं ने तुम्‍हें चिढ़ाने को कहा था पर तुमने यह बात सुनकर भी उपेक्षित कर दी थी। यह बात तुम सुनना और कतई महसूस नहीं करना चाहते थे। शायद!
“हमें नहीं होता अब प्‍यार व्‍यार। वह होकर रीत गया और उस की लाश लेकर उम्र बीत गयी। अब ऐसी चीजें कोई थ्रिल नहीं देतीं। जैसे बड़े त्‍योहार आते हैं चले जाते हैं थ्रिल नहीं होता। पहले होता था यह थ्रिल छोटी-छोटी बातों का मसलन चांदनी का, बरसात का, जन्‍मदिन का, अब नहीं․․․भई पैंतालीस का हो रहा हूँ।” नमक में भीगी तुम्‍हारी आवाज़ मन में गहरे पैठती, शब्‍द ऊपर तिरते रह जाते।
एक डिप्‍लोमेटिक अलगाव लगातार तुम पर तारी रहता था। तुम सम्‍बन्‍धों में भावुकता के सख्‍़त खिलाफ थे। बकौल तुम्‍हारे․․․ जिसे जितना अधिक प्रेम होगा वह उतना ही ख़ामोश और निस्‍पृह मालूम होगा। मुझसे भी तो पूछा होता कभी․․․ मेरे प्रेम का दर्शन․․․ जहाँ तक मेरा ख्‍याल था, यह दर्शन सब अपना-अपना गढ़ा करते हैं, अपनी तरह से। जैसे वे स्‍वयं गढ़े गये होते हैं, परिस्‍थिति और प्रकृति के हाथों। माना प्रेम बातूनी नहीं होता। प्रेम है तो अभिव्‍यक्‍त तो होगा न! निस्‍पृह, चुप्‍पा․․․ उदासीन प्रेम यह तो मेरा फलसफा नहीं था․․․ पर तुम्‍हारा तो था․․․ अन्‍ततः!
तुम्‍हें हुड़क या हूक होती थी․․․ प्रेम की या देह की। बहुत संताप पाने पर एक दोस्‍त की जो समूचा कान हो․․․ जो न प्रश्‍न करे, न सलाह दे। जाने क्‍यों मैं नहीं समझा सकी स्‍वयं को कि प्रेम कभी चाय या सिगरेट जैसा भी हो सकता है।
मेरे लिये तो हवाएँ प्‍यार का मौसम लाई ही नहीं और जो आया वह अप्रत्‍याशित था, जानी बूझी उपेक्षा से भरा था और नितान्‍त एकतरफा․․․ और मैं सारी दुनिया से अलग रंग की और एक उम्र देख चुकीं, प्रेम जी चुकीं, जुड़ कर टूट चुकीं उन आंखों के लाल डोरों से बंधी जा रही थी। तुम्‍हारे लिये मेरा मन पिघलता था, बूंद-बूंद और तुम्‍हारी ठण्‍डी उपेक्षा से अलग अलग तरह की आकृतियों में जम जाता। शिष्‍या! मित्र! प्रेमिका? या कोई भी तो नहीं․․․ सही मायनों में तुम्‍हारा दर्शन क्‍या था, कौन जाने? तुम्‍हारे अपरिमेय व्‍यक्‍तित्‍व की सीमाएँ कहाँ थीं? शराब पीकर बहुत बोलते थे तुम․․․ पर कहीं कहीं जहाँ यह उमा उन्‍हें आगे बढ़कार थाम लेना चाहती वहीं उसे घनी कटीली बाड़ लगाए ‘प्रवेश निषिद्ध' का बोर्ड लगा मिलता था। हारना कहां पसन्‍द था तुम्‍हें? दुनिया के समक्ष जो हार छोटा कर दे उसे कैसे स्‍वीकार करते तुम? एक बार कभी कहा था तुमने लम्‍बे खामोश पल में किए गये एक आत्‍मसाक्षात्‍कार के बादः “हारा नहीं उमा मैं, मनुष्‍य मात्र ही नहीं बना हारने के लिये। कैसे हार जाये कोई․․․ जब जन्‍म के पहले ही․․․ उस पहली प्रतियोगिता में जीत कर? कहीं पढ़ा था मैं ने․․․ जब करोड़ शुक्राणुओं की रेस में जो जीत कर जन्‍म लेता है वही मानव बाद में आखिर क्‍योंकर हारे? पहली लड़ाई तो सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्‍ट की वही थी न!”
एक बार फिर बहुत दिनों बाद यायावरी कर तुम लौटे थे, बल्‍कि रम्‍या को पूना के एक इंटरनेशनल बोर्डिंग में एडमिशन मिल गया था। उससे मिल कर लौटे थे, तुम बहुत खुश थे कि तुमने उसे अपने साथ भारत में रहने पर राजी कर लिया है। तब एक रात फिर दो दोस्‍तों की महफिल जमी थी। मैं कला के क्षेत्र में कुछ और सीढि़यां ऊपर चढ़ गई थी। मैं ने तुम्‍हें बताया कि� “इस बार पापा जब मुम्‍बई आये थे खुश थे चित्रकला के क्षेत्र में मेरे मुकाम को देख कर, पर नाराज़ होकर गये थे कि अब तक मैं ने शादी के बारे में सोचा तक नहीं है। मैं साफ मना कर चुकी हूँ कि ‘अब कला ही जीवनसाथी है'।”
यह अतिभावुक और अतिरंजित टिप्‍पणी न पापा के न तुम्‍हारे गले उतरी थी। तुम यह नाटकीय सच जान कर चुप ही रहे। फिर भी हमने वह वाइन पी जो तुम स्‍विट्‌जरलैण्‍ड से थोक में लाये थे, प्‍लम वाईन। एक पूरी बॉटल खाली कर दी थी हमने। तुम हतप्रभ थे मुझे लगातार सिगरेट फूंकते देख पर रोका नहीं था तुमने। उसी रात मैं ने तुम्‍हें बताया था कि उस बदसूरत सेल्‍फ पोर्ट्रेट को ललित कला अकादमी का युवा चित्रकारों में प्रथम पुरस्‍कार मिला है। तुमने कहा था, “गधे बैठे होंगे निर्णायक मण्‍डली में” मैं आहत हुई थी। तब तुमने प्रस्‍ताव रखा था पहली बार कि आज तुम मुझे अपने चित्र का विषय बनाओगे और बताओगे कि मैं क्‍या हूँ एक चित्रकार की निगाह में, अगर मुझे तुम पर भरोसा हो तो!
भरोसा! मधु! तुम हथेली की नस काट देने को कहते तो काट डालती पर तुम्‍हें यह बहनजी नुमा डायलॉग्‍स पसन्‍द नहीं थे। सो मैं हमेशा की तरह चुप ही रही। और․․․ तुम्‍हारे इशारे भर पर मैं ने चुपचाप अपनी स्‍लिप तक उतार दी थी। तुमने नापा-जाँचा-परखा․․․ घुटनों के बल बैठ जाने को कहा․․․ फिर गहरे हरे पर्दे के पीछे आधा ढंका-आधा उघड़ा - सा खड़ा किया। कैनवास पर ब्रश से कुछ रेखाएँ उकेरीं और उठकर सिगरेट सुलगा कर तुम बाहर बॉलकनी में चले गये। फिर तैयार होकर हम बाहर खाना खाने गये। तुम रहस्‍यमय तरीके से चुप थे।
उस रात मेरी देह को एक अहसास की तरह तुमने छुआ था। बस देने और देने के लिये। कुछ भी लेने को तैयार नहीं थे तुम मुझसे․․․ सुख का एक छोटा सा कतरा देने का अहसान भी नहीं लेना चाहते थे। बार-बार अपनी परफोर्मेन्‍स को लेकर पूछते रहे थे।
“सुख तो दिया न मैं ने तुम्‍हें।” जगा-जगा कर कई बार पूछा था तुमने।
“बहोऽत।” मैं ने नींद में गड़ऽप होते हुए कहा था।
हैरान होते रहे थे तुम पचास की उम्र में भी मुझे सुख देने की अपनी अक्षरित क्षमता पर! कैसी असुरक्षा थी वह? किस अलगाव और टूटन के बाद की ग्रन्‍थि थी? क्‍या था वह, मैं कैसे समझती? फ्रायड बाबा के अवचेतनात्‍मक- रहस्‍यों को तब मैं ने पढ़ा ही कहाँ था?
उस रात के बाद में मैं ने सुना तीन दिन तुम अपने स्‍टूडियो में हायबरनेट रहे। लोग कयास लगा रहे थे कि मधुसूदन का कोई मास्‍टरपीस ही आने वाला है। तुम बहुत दिनों बाद पेन्‍ट करने बैठे थे। वो तो मैं तुम्‍हारी अधूरी पुरानी पेन्‍टिंग्‍स को पूरा करती रही बीच में नहीं तो तुम्‍हारी कला में रिक्‍तस्‍थान आ जाता․․․ तुम्‍हारा असर कम होने लगता। यह बात तुम जानते थे। अब इतने समय बाद मेरा ब्रश जब तुम्‍हारी अधूरी पेन्‍टिंग्‍स पर चलता था तो मैं रंग संयोजन और तुम्‍हारी विषय को लेकर मंशा खूब समझ जाती थी। तुम्‍हारी पेन्‍टिंग तुम्‍हारी ही लगती। तुम्‍हारे इस असर से मैं अपनी पेन्‍टिंग्‍स को बहुत कोशिश करके ही बचा पाती थी। अन्‍यथा दो चार टिप्‍पणियाँ इस पर आ चुकी थीं कलासमीक्षकों की आर्टटुडे में कि “उमा सहाय की पेन्‍टिंग्‍स पर मधुसूदन का प्रभाव।” मुझे तो भला लगा था। तुम मुझे हिदायत देने बैठ गये थे कि यह सब हम दोनों के लिये ही ठीक नहीं। तुम जानते थे मेरे बिना तुम्‍हारा और तुम्‍हारे बिना अब मेरा काम नहीं चलने वाला, हाँ, भई इस साझे क्षेत्र में।
हां, तो चौथे दिन तुम प्रगट हुए थे दाढ़ी बढ़ाए, खिचड़ी बाल और पसीने से महकता कुर्ता पायजामा लेकर। मुझे वह विशाल पेन्‍टिंग वैन की डिक्‍की में से लाने को कहा। अकेले लाना मुश्‍किल था पर लाई․․․ उसे अखबारों और सुतलियों के प्रयोग से ढक रखा था। खोला तो हतप्रभ� ढेरों ढेर हरी पत्त्‍ाियों वाली झाड़ी के बीच जामुनी रंग की एक पतली लम्‍बी आकर्षक देह, बालों से ढका वक्ष, पत्त्‍ाियों के बीच झांकती प्रश्‍नर्चिी सी नाभि, लम्‍बे पैर, चेहरा लम्‍बा, लम्‍बी खिंची तरल आंखें। बालों में जवा का रक्‍ताभ पुष्‍प। ‘शिवाज़ पार्वती' कुछ कहा नहीं तुमने, कहते ही कहां थे तुम कुछ। न मुझे कुछ कहने का मौका देते थे। तुमने फिर पूरी सीरीज़ बनाई। एक्‍ज़ीबिशन लगी। पर वे सब पेन्‍टिंग्‍स दान कर दीं तुमने एक संस्‍थान को। एक भी पेन्‍टिंग न मुझे दी, न खुद रखी। आगे इस विषय पर न कुछ पूछा गया न कहा गया। मैं ने अपने आप जान लिया मैं क्‍या हूँ तुम्‍हारे लिये।
धीरे-धीरे तुमने पुराना घर छोड़ दिया। बड़ा स्‍टूडियो बन्‍द हो गया। तुमने इस स्‍टूडियो से लगा अपना फ्‍लैट किरायेदार से खाली करवा लिया और यहीं चले आये। तुम बीमार रहने लगे थे और तुम्‍हें किसी की जरूरत थी अपने पास। पूरे वजूद पर तारी एक हताशा और घन्‍टों खड़े या बैठे रह कर पेन्‍ट करने की शारीरिक अक्षमताओं के चलते तुमने पेन्‍ट करना एकदम बन्‍द कर दिया था। इस सबके बावजूद मुझ पर नकारात्‍मक प्रतिक्रिया करना जारी रखा, मुझे डांट कर सिखाना जारी रखा। तुम्‍हें दिक्‍कत होती थी, मैं ने सिगरेट पीना कम कर दिया था। मैं अपनी पूरी आस्‍था के साथ तुम्‍हारी देखभाल करती थी। हम अब भी ज्‍़यादातर एक ही बिस्‍तर पर दो अजनबियों की तरह सोते थे॥ तुम बिस्‍तर के एकदम दूसरे कोने पर ए सी के एकदम सामने और मैं․․․ उस तरफ जहां गाढ़ा अंधेरा होता। मेरा हाथ गलती से तुम्‍हारी छाती पर या पैर तुम्‍हारी छाती पर या पैर तुम्‍हारी जांघ पर पड़ जाता तो तुम चिल्‍ला पड़ते थे।
“ठीक तरह से सोओ उमा!”
कभी जब तुम पार्टियों में ज्‍़यादा शराब पी लेते थे तो․․․ लौटते थे मेरे पास․․․ वर्जनाओं और अतीत से मुक्‍त होकर․․․तुम बेलौस होकर कह भी देते․․․ ‘शराब पीकर वर्जनाएं टूट जाती हैं और उमा मैं तुम्‍हें छू पाता हूँ बिना अपराधबोध के।' और कहते- ‘छोटी-छोटी तलाशों का अपना मतलब होता है। बस एक गिलास वाइन और मैं अपने पूर्वाग्रहों से मुक्‍त।' पर बिना शराब दिल पर एक सांकल हमेशा चढ़ी रहती, होंठों के टांके यदा कदा ही टूटते। आंख मिचौनी जैसी दोस्‍ती चलती रहती। उन हताशा भरे दिनों में तुम एक रन्‍ध्रविहीन पारदर्शिता ओढ़े रहते थे, जिसे देख कर लगता था कि मैं इस तरल को छूकर तुम्‍हें छू सकूंगी, पर वह तरल कहां था, वह प्‍लास्‍टिक-सी रन्‍ध्रविहीन पारदर्शिता थी․․․ जिसे छूकर निर्जीव हो जाते सारे सम्‍वेदन।
लोग कहते थे, मैं तुम्‍हारी प्रेमिका हूँ! प्रतिक्रिया में तुम्‍हारी खीज देख कर मन ही मन मैं खुश होती थी। पर सच तो ये था तुम प्रेमी बनना ही नहीं चाहते थे, हाँ, तुम्‍हें आराध्‍य बनना स्‍वीकार्य था। जहां बिना कुछ लिये, बिना कुछ दिये․․․ एक महज एक आभास बन कर रहा जा सके। बिना किन्‍हीं कर्तव्‍यों के।
कला की दुनिया बहुत भुलक्‍कड़ होती है मधु․․․ लेकिन तुम्‍हारे पेन्‍ट न करने के बाबजूद तुम्‍हारा नाम तब भी सम्‍मान से लिया जाता था․․․ तुम्‍हारी शैली को बहुत लोग आगे बढ़ा रहे थे․․․ पर कला की दुनिया पर से तुम्‍हारा ‘होल्‍ड' खत्‍म हो रहा था․․․ तुम लगातार हताशा के गर्त में गिर रहे थे। मैं तुम्‍हें बाहर लाने के लिये चित्र बनाने के लिये प्रेरित करती तो तुम मुझसे बहस करते।
“मैं ने जितना काम किया, उसका आधा भी न मुझसे पूर्व के, न मेरे समकालीन, न मेरे बाद के चित्रकार कर सकते हैं।”
उन्‍हीं दिनों तुमने देश के सर्वश्रेष्‍ठ कलाकार का सम्‍मान ठुकरा कर उसे न लेने की घोषणा कर दी थी। ‘यह सम्‍मान मुझे कब का मिल जाना चाहिये था। अब इसका क्‍या अर्थ?'
याद है, तुम्‍हारे अस्‍पताल जाने के पहले वाली शाम․․․ मेरी एक पेन्‍टिंग को कोई अवॉर्ड मिला था, अब याद नहीं जाने कौन सा पर कोई महत्त्‍वपूर्ण किस्‍म का पहला सम्‍मान था। तुम्‍हारी नकारात्‍मक टिप्‍पणी पर पहली बार रोना नहीं आया था। मैं सेलेबे्रट करना चाहती थी, समकालीन दोस्‍तों के साथ जो सब के सब उभरते चित्रकार थे मगर तुम चीख पड़े थे․․․․ “अपने यार दोस्‍तों का अड्‌डा मत बनाओ इस घर को। भूल गई कि․․․” न जाने क्‍यों तुम दिन ब दिन चिढ़चिढ़े हो गये थे। जानती थी, बात-बात पर गुस्‍सा तुम्‍हारे बढ़ते ब्‍लडप्रेशर के लिये घातक था लेकिन मैं भी तो तंग आ गई थी। मैं ने जवाब दे दिया।
“कुछ नहीं भूली हूँ मधुसूदन। छोड़ो कुछ भी सेलेब्रेट नहीं करना मुझे। तुम जैलस हो रहे हो। मेरी सफलता किरकरी बन गई है अब तुम्‍हारे लिये, है ना!”
“उमा!” तुम्‍हें ठण्‍डे पसीने आ गये थे। आंख भर आई थी। पर हम प्‍यार की उस हद पर खड़े थे जहां कामनाओं की मुश्‍कें कस कस कर हमारे अडि़यल मन एक दूसरे को आहत कर के सुख पाते थे। अब जि़न्‍दगी की अपनी दलीलें बन गई थीं। सम्‍बन्‍धहीनता का पाट चौड़ा हो चला था। संघर्ष, अनुभव अब नॉस्‍टैल्‍जिया में बदल चले थे।
“उमा! ऐसा कैसे सोच सकी तू! मैं․․․ मैं जलूंगा तुझसे? मेरे नैगेटिव कमेन्‍ट्‌स तुझे परफेक्‍शन की बारीक हद तक पहुंचाने के लिये हुआ करते थे। उमा! आज चाहता था मैं कि तुम मेरे साथ सेलेबे्रट करो, पर कह न सका․․․ किस अधिकार से कहता?” इतना कहकर ही हांफने लगे थे तुम।
मैं ने दोनों हाथ थाम लिये थे तुम्‍हारे। एक दूसरे के सुख-दुख से पिघलते हम। दोस्‍तों को फोन कर दिया था न आने के लिये। तब तुमने बड़े चाव से अपना चांदी का सिगरेट केस निकाला था, उसमें दस उम्‍दा विदेशी सिगरेट्‌स थीं। एक-एक हमने पी। फिर शैम्‍पेन खुली। उस दिन, लम्‍बे अन्‍तराल बाद तुम्‍हारा जी चाहा था कि तुम पेन्‍ट करो․․․ तुमने जामुनी रंग में ब्रश डुबोया था। जामुनी, तुम्‍हारा मनचाहा रंग, तुम कहते थे ना कि मैं सांवली नहीं हूँ, सलेटी या नीली भी नहीं, लाल झांई मारती मेरी स्‍निग्‍ध त्‍वचा जामुनी रंग की है। मधु․․․ वह ब्रश डूबा ही रह गया था, कि मुझे एम्‍बुलेन्‍स बुलानी पड़ी थी। तुम अस्‍पताल गये ज़रूर थे․․․ मुझे पूरा विश्‍वास था तुम लौट आओगे एक यायावरी के बाद․․․ पर तुम नहीं लौटे मधुसूदन।
ना विसाल है, ना सुरूर है, ना ग़म है
जिसे कहिये ख्‍़वाबे ग़फलत वोह नींद मुझको आयी।
ऐसी ही किसी गफ़लत भरी नींद के जंगल में खो गये थे तुम।
इतने वर्षों के अन्‍तराल में हज़ार-हज़ार बार लगा कि चलो तुम तो नहीं लौटोगे मैं ही चली आऊं तुम्‍हारे पास। पर तुम्‍हारे इस सपने ने पूरा होने में वक्‍त लगा लिया। पासपोर्ट बन चुका है․․․ उम्र के दस्‍तखतों के साथ․․․ बस वीज़ा मिल जाये, बुलावा आ जाये तुम्‍हारा तो सफर की तैयारी करूं
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