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Friday 13 September 2013

अनीता भारती की कहानी - नीला पहाड़ लाल सूरज



अनीता भारती
कविता, कहानी और लेख आदि पत्रा-पत्रिाकाओं में प्रकाशित। 'गब्दू राम वाल्मीकि' पर पुस्तिका। दलित
महिलाओं पर लेखन। जन सरोकारों में भी भागीदारी।
एडी-बी, शालीमार बाग, दिल्ली
मो. ०९८९९७००७६७

पसीना पोंछते हुए समर ने दरवाजे पर लगी कॉलबेल बजाने के लिए जैसे ही अपनी उंगली रखी, हर बार की तरह उसकी नजर दरवाजे पर लगी नेम प्लेट पर गई। यह प्रज्ञा और समर का द्घर है। पर आज उसे अपना नाम पढ़ते हुए जरा भी खुशी नहीं हो रही थी। समर को इन दिनों लगने लगा था कि अब यह द्घर प्रज्ञा का है, उसके लिए तो केवल तीन कमरों का मकान रह गया है, जिसमें उसे महज सोने के लिए ही जाना होता है। दरवाजा खुलने से समर की तन्द्रा टूटी। समर ने द्घर में द्घुसते ही चारों तरपफ नजर दौड़ाई, प्रज्ञा कहीं नजर नहीं आई। दरवाजे से लेकर द्घर के अंदर तक चारों तरपफ खिलौने ही खिलौने बिखरे हुए थे। सोपफे की गद्दियां नीचे पड़ी हुई थीं। ड्राइंग रूम पूरी तरह अस्त-व्यस्त पड़ा था। बच्चों ने पूरे द्घर में गदर मचा रखा था। डाइनिंग टेबल की दो-तीन कुर्सियों को आपस में जोड़ कर शायद द्घर की आकृति बना कर चादरों से छत बना दी गई थी, जो अब एक ओर से नीचे लटक रही थी। द्घर को देख कर लग रहा था कि अभी-अभी भूकंप यहां से चक्कर लगा कर गया है, जिसमें उसने केवल खिलौनों पर खासतौर पर अपनी नजर मेहरबान की है। छह साल की सीमोन और चार साल के सि(ार्थ में किसी खिलौने को लेकर छीना-झपटी मची हुई थी। समर ने बच्चों को गुस्से में झटक कर अलग करते हुए पूछा-'मम्मी कहां गई?'
'पता नहीं मम्मी ने बताया नहीं'- सीमोन ने सि(ार्थ का खिलौना लगभग छीनते हुए लापरवाही से जवाब दिया।
समर के मन में चिढ़ की एक लहर-सी उठी और वह मन ही मन बड़बड़ाया-'सारा दिन द्घूमने के अलावा इस औरत को कोई और काम नहीं है। वह खीझता हुआ बेडरूम में गया और पिफर धड़ाम से दरवाजा बंद कर लिया। जोर की आवाज से बच्चे सहम कर एक तरपफ खड़े हो गए। कुछ ही पलों बाद प्रज्ञा दोनों हाथों में सब्जी के थैले लिए हांपफते हुए द्घर में द्घुसी। उसने नीचे समर की मोटर साइकिल देख ली थी, पिफर भी उसने बच्चों से पूछा-'पापा आ गये क्या?'
बच्चों ने कहा-'हां आ गए।' प्रज्ञा ने पिफर पूछा-'कब आए?' सिमोन ने जवाब दिया-'अभी आए हैं और बेडरूम में सो रहे हैं।' यह सुन कर प्रज्ञा को कोई खास हैरानी नहीं हुई। आजकल समर का यही हाल है। द्घर में आते ही चीखना-चिल्लाना और
पिफर औंधे मुंह बिस्तर पर लेट जाना। प्रज्ञा ने कमरे का दरवाजा धीरे से खोला। समर बत्ती बुझा कर लेटा था। प्रज्ञा ने बत्ती ऑन की। कमरा रोशनी से नहा गया। कमरे में लगी डॉ. अम्बेडकर की मनमोहक तस्वीर चमक उठी। साथ में पाब्लो नेरुदा की कविता-'तुम्हारा नाम एक लाल चिड़िया की तरह उड़ता है' पोस्टर के रूप मे टंगी हुई थी, जिसके शब्द नाइट बल्ब की नीली रोशनी में चमक उठे 'मैं उस हठ को प्यार करता हूं
जो अभी भी
मेरी आंखों में है
मैं सुनता हूं अपने हृदय में अपने अश्वारोही
पदचाप
मैं काट खाता हूं सोती आग को और बरबाद
मति को और अंधेरी रातों तथा भगोड़ी सुबहों में
जो तट पर शिविरों में पड़े निगरानी करते हैं
बांझ मुकाबलों से लैस उस यात्राी की
जिसे बढ़ती परछाइयों और कांपते
पंखों के बीच रोक रखा गया है
मैं महसूस करता हूं कि मैं हूं
और मेरी पत्थर भुजाएं मेरी रक्षा करती हैं।'
समर को यह कविता बहुत पसंद थी। वह अक्सर इस कविता को एक रूमानी जोश से पढ़ता था। प्रज्ञा ने प्यार से उसके सिर पर हाथ पफेरते हुए कहा-'अरे, अंधेरे में क्यों लेटे हो?'
समर ने चिढ़ कर प्रज्ञा का हाथ झटकते हुए रुखाई से कहा-'लाइट ऑपफ कर दो, मुझे अच्छा नहीं लग रहा।'
प्रज्ञा ने कहा-'ठीक है, अभी बंद कर देती हूं, पर बताओ तो सही, क्या बात है?'
समर ने उसी चिढ़े स्वर से कहा-'कुछ नहीं, और तुम्हें जानने की कोई जरूरत नहीं, तुम हमेशा बाहर द्घूमो।'
प्रज्ञा को समर की बातें सुन कर थोड़ी हंसी आ गई। प्रज्ञा को लगा, जब समर ऐसी चिड़चिड़ी बातें करता है तो बड़ा 'क्यूट' लगता है। वह उसे चिढ़ाने के लिए गुदगुदी करते हुए बोली-'अरे यार, मैं तो सब्जी लेने गई थी। यहीं तो थी। कितने पजेसिव हो तुम मेरे लिए। एक मिनट की जुदाई भी बर्दाश्त नहीं कर सकते!' कहते हुए प्रज्ञा का चेहरा प्रेमानुराग से दमक उठा।
प्रज्ञा के गुदगुदी करने से समर को उतना बुरा नहीं लगा, जितना उसे अपने लिए पजेसिव सुनना। यह शब्द सुनते ही मानो उसके तन-बदन में आग-सी लग गई। वह उसके हाथ को बुरी तरह झटकते हुए बोला- हां हां, पजेसिव ही क्यों, ये भी कह दो कि मैं बहुत शक्की हूं। तुम्हें मारता-पीटता हूं, तुम्हें बाहर जाने से रोकता हूं। कहो, कहो कि तुमने एक जल्लाद से शादी की है और अब पछता रही हो?
प्रज्ञा के मन में एक बार तो आया कि समर को और चिढ़ाने के लिए मजाक में ही सही, कह दे कि हां, मैं तुमसे शादी करके पछता रही हूं। पर यह सोच कर चुप रह गई कि कहीं ये मजाक उस पर उल्टा न पड़ जाए। दूसरे, आज उसे समर पर कतई गुस्सा नहीं आ रहा था, इसलिए वह इतनी बातें सुनने के बाद भी प्यार से समर के गुस्से को शांत करने की कोशिश कर रही थी। और कोई दिन होता तो वह उसे बहस और लड़ाई में कब की पछाड़ चुकी होती। पर आज वह समर को एक खुशखबरी सुनाने के लिए बेताब थी। इसलिए वह अपने गुस्से को दबाते हुए मुस्कुरा रही थी। उधर आरोप-दर-आरोप जड़ने के बावजूद प्रज्ञा को मुस्कुराते देख समर के भीतर का मर्दाना अहं जाग उठा। उसने लगभग चिल्लाते हुए कहा-'दिन में क्या करती हो? उस समय क्यों नहीं सब्जी खरीद लेती? मुझे दिखाना चाहती हो कि तुम द्घर का कितना काम करती हो और मैं कितना निखट्टू हूं?'
समर को समझाने की सारी कोशिशें नाकाम थीं और वह बिना वजह चिल्लाए जा रहा था। प्रज्ञा चुप हो गई, आंखों में आंसू भर आए। जब से सिमोन और सि(ार्थ हुए हैं, तब से प्रज्ञा ने अपने गुस्से पर नियंत्रण करना सीख लिया है। कई बार वह अपने बच्चों की वजह से चुप रह जाती तो कई बार इस डर से कि कहीं उसका प्यार भरा द्घरौंदा तिनका-तिनका होकर बिखर न जाए। वह दुखी मन से बोली-'सारे दिन तो द्घर में इतने काम रहते हैं। ऊपर से आज लक्ष्मी भी नहीं आई। उसके हिस्से का काम भी मुझे करना पड़ा। आधा दिन बच्चों की लड़ाई निपटाने में बीत जाता है। आज सब्जी भी खत्म हो गई थी तो सोचा तुम्हारे आने से पहले सब्जियां ही ले आती हूं।' लेकिन समर को प्रज्ञा की बातों से न सहमत होना था, न वह हुआ। उलटे व्यंग्य भरे स्वर में बोला-'चलो, आज तो तुम सब्जी लेने गई थी। मान लिया, पर कल भी तुम द्घर में नहीं थी और उसके दो दिन पहले भी नहीं।'
प्रज्ञा जानती थी कि समर का सारा गुस्सा उसके काम को लेकर ही है।
प्रज्ञा पिछले कई सालों से महिलाओं के एक समूह से जुड़ कर सक्रिय रूप से काम कर रही थी। अब पारिवारिक
व्यस्तताओं के चलते वह उसमें कभी-कभार ही जा पाती है। लेकिन पिछले पंद्रह दिनों से उसे लगभग रोज जाना पड़ रहा है। कारण ही कुछ ऐसा हो गया कि वह अपने आप को नहीं रोक पा रही थी। बल्कि उसे लग रहा है कि यह उसका पफर्ज है। संस्था की एक सक्रिय कार्यकर्ता और उसकी बचपन की दोस्त मुन्नी और उसके भाई नवीन को दबंग जाति के उनके पड़ोसियों ने एक झूठे मामले में पफंसा कर थाने में बंद करवा दिया। मुन्नी को संस्था के लोग यह कह कर छुड़ा लाए कि थाने में कोई महिला पुलिस नहीं है तो वह कैसे रात भर थाने में रह सकती है और नवीन को अगले दिन छुड़वा लेने की उम्मीद पर वे सब लोग वापस द्घर लौट आए। लेकिन उसी दिन आधी रात को मुन्नी का रोते हुए पफोन आ गया कि पुलिस ने नवीन से झूठा जुर्म कबुलवाने के लिए उसे पीट-पीट कर मार डाला। नवीन की मौत के जिम्मेदार पुलिस वालों और दबंगों को पकड़वाने के लिए उसे और उसके साथियों को रोज कहीं न कहीं और किसी न किसी से मिलना पड़ रहा है। साथ- साथ धरना-प्रदर्शन, प्रेस रिलीज आदि का भी काम चल रहा है। कल भी वह संस्था की सब बहनों के साथ पुलिस मुख्यालय गई थी पुलिस कमिश्नर से मिलने। समर शायद इसी वजह से गुस्सा चल रहा है। उसने सोचा था कि समर को वह हर बार की तरह मना लेगी। लेकिन इस बार उसे देख कर लग रहा था कि वह गुस्से के ज्वालामुखी पर बैठा हुआ है।
वह समर को समझाने के स्वर में बोली-'ठीक है समर, कभी-कभी तो बाहर जाना मेरा भी अधिकार है।' समर प्रज्ञा के मुंह से अधिकारों की बात सुन कर चिढ़ गया। उसका मुंह कसैलेपन से भर गया और वह रोष में बोला-'मैं जानता था, अभी तुम सीधे अधिकारों पर आ जाओगी। अब चाहोगी कि रोज मीटिंग में जाओ और मैं बर्तन मांजूं। तो मैं ऐसा कभी नहीं करूंगा। आखिर मैं भी तो काम से थक कर लौटता हूं! मुझे भी तो सुकून चाहिए! बीबी से अपने लिए समय चाहिए।
प्रज्ञा को समर के ऐसे ताने सुन कर गुस्सा आ गया। वह आपे से बाहर होती हुई बोली-'समर, तुम्हें मालूम था। मैं शादी से पहले सामाजिक काम करती थी। उस समय तो तुम मुझे बहुत प्रोत्साहित करते थे। अब तुम्हें क्या हुआ? एक बात मैं तुम्हें बता दूं। तुम्हारे कहने या गुस्सा करने से मैं ये काम नहीं छोड़ने वाली। आखिर इस दमद्घोंटू वातावरण में मुझे भी तो कुछ पल खुशी के चाहिए। दिलो-दिमाग को सुकून चाहिए, लोगों का साथ चाहिए।'
'अब आई न असली बात पर! ठीक है, द्घूमो लोगों के साथ और मुझे और मेरे बच्चो को छोड़ दो।' समर के ताने सुन कर प्रज्ञा का सिर भन्ना गया और वह गुस्से से बड़बड़ाती हुई उठी और मन ही मन बोली-'भाड़ में जाओ तुम और तुम्हारा परिवार। मैं अब तुम्हें नहीं मनाऊंगी।' कहते-कहते वह खाना बनाने िकचन में चली गई।
आजकल प्रज्ञा और समर आपस में ऐसे ही लड़ते रहते हैं। ऐसा नहीं कि दोनों में प्यार नहीं है। प्यार है और अगर प्यार न होता तो क्या वे समाज से लड़कर उसके सब कायदे-कानूनों को धता बता कर किए गए प्रेम विवाह को निभाते रहते। लेकिन आपस में द्घनिष्ठ प्यार के बाबजूद चाह कर भी वे एक-दूसरे के मन को शायद नहीं समझ पाते। हो सकता है इसका जिम्मेदार दोनों का भिन्न-भिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश का होना हो। आमतौर पर सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक हैसियत से उत्पन्न स्थिति ही व्यक्ति के अंदर मूल्यों के निर्धारण में मुख्य भूमिका अदा करती है। प्रज्ञा जिस समाज से संबंध रखती है, वहां औरतों को अपने पति से हर बात के लिए बार-बार आज्ञा नहीं लेनी पड़ती। पति को देवता की तरह पूजने की परंपरा नहीं है। टोका-टाकी पर मुंहतोड़ जबाव देना बुरा नहीं माना जाता। जातीय अपमान झेलने से लेकर शोषण के दमन-चक्र में पिसने तक और आपस में हास-परिहास मौज-मस्ती करने तक में पति-पत्नी दोनों की बराबर की हिस्सेदारी होती है।
प्रज्ञा आजाद पंछी की तरह समर के साथ गाना चाहती है, चहकना चाहती है, चारों ओर द्घूमना चाहती है। पर समर को एकांत, शांतिपूर्वक द्घर में बैठना पसंद है। ऐसा नहीं कि समर बचपन से एकांतप्रिय हो या उसे भीड़ से नपफरत हो। यह भी कारण नहीं है कि उसे सामाजिक कामों में रुचि न हो। लेकिन समर को कुछ महीनों से लगने लगा है कि उसने दुनिया बदलने के लिए बहुत समाज सेवा कर ली। अब ठहर कर अपना खुद का मूल्यांकन करने की बारी है। इसलिए वह अब सामाजिक जीवन से विराम चाहता है। पिफर बच्चे भी बड़े हो रहे हैं, सो बच्चों की तरपफ भी उन दोनों का पफ़र्ज है। और सच बात तो यह है कि प्रज्ञा से शादी करने के बाद उसे द्घर में रहना अच्छा लगने लगा है। वह प्रज्ञा के साथ एक सुकून भरी शांत जिं़दगी जीना चाहता है। समर को लगता है कि जब वह द्घर आए तो प्रज्ञा उसे द्घर में मिले, वह उससे प्यार-मोहब्बत की बातें करें, सुंदर सुरुचिपूर्ण सजे द्घर में उसे बढ़िया खाना पका के खिलाए, ऑपिफस के लिए तैयार होने में उसकी पूरी मदद करे। कपड़े सापफ-सुथरे धुले मिलें। इनमें से किसी एक की कमी होने पर वह बहुत जल्दी चिढ़ जाता।
कुछ साल पहले तक दोनों सभी सभा-सोसायटियों में साथ-साथ जाते थे, पर समर ने धीरे-धीरे सब जगह जाना कम और पिफर लगभग बंद-सा कर दिया। उसे अहसास होने लगा कि सब लोग इतने सालो से सिपर्फ गाल बजाने का काम कर रहे हैं, काम कुछ बढ़ नहीं पा रहा। अक्सर वह बड़बड़ाने लगता कि सब साले मीटिंगों में दारू पीने, लंबी-लंबी हांकने और मौका मिले तो इश्कबाजी करने आते हैं। अब तो वह इन सभा-सोसायटियों के नाम से भी चिढ़ने लगा। जब भी कहीं से बुलावा आता तो वह उसे नजरअंदाज कर देता। पर प्रज्ञा में अभी आग बाकी थी और उसका आंदोलन से विश्वास नहीं उठा था। कठिन परिस्थितियों में जीने के कारण एक औरत यों भी इतनी जल्दी
निराश-हताश नहीं होती जितना मर्द। प्रज्ञा के हताश न होने का एक कारण शायद उसके अपने समाज की हालत में सदियों से कोई परिवर्तन नहीं होना था। वह अपनी आग को अपने समाज के लिए बचाए रखना चाहती थी। इसलिए उसने दो-तीन सामाजिक संगठनों से लगातार अपना जुड़ाव बनाए रखा हुआ था।
पूरे दो द्घंटे किचन में तरह-तरह की खुशबू उड़ाने के बाद वह समर के पास आई और उसे जगाते हुए बोली-'देखो, मैंने खाना बना कर टेबल पर लगा दिया है। मन करे तो खा लेना, वरना तुम्हारी मर्जी।' उसे लगा शायद समर उसे रोक लेगा। पर वह बिना हां-हूं किए बिस्तर पर मुर्दे की तरह पड़ा रहा। प्रज्ञा निराश हो बच्चों को खाना खिलाने चली गई। खाना खिलाते-खिलाते उसका मन अतीत की तरपफ उड़ चला। मन में विचारों की आंधी-सी चलने लगी। प्रज्ञा समर से जंतर-मंतर पर हो रहे एक प्रदर्शन के दौरान मिली थी। अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त मोटरसाइकिल बनाने वाली एक कंपनी ने बिना किसी पूर्व सूचना के अपनी कंपनी से कई सौ मजदूरों की एकाएक छंटनी कर दी। जब कंपनी मजदूरों ने छंटनी का विरोध किया तो कंपनी ने विरोध दबाने के लिए पुलिस और किराए के गुंडों से उनकी बेरहमी से पिटाई करवाई, जिसमें दो मजदूरों की मौत हो गई और अनेक मजदूर द्घायल हो गए। कंपनी द्वारा मजदूरों पर ढाए गए जुल्मों के विरोध में आजाद मजदूर एकता संद्घ ने कंपनी के आगे अनिश्चितकालीन धरना रखने का पफैसला लिया। मजदूर संद्घ के पंद्रह-बीस नौजवान साथी रात-दिन धरने पर बैठ रहे थे। समर क्योंकि मजदूर संद्घ का होलटाइमर था, इसलिए वह उस धरने में न केवल दिन-रात बैठ रहा था, बल्कि वह उस पूरे आंदोलन का सक्रिय नेतृत्व भी कर रहा था। धरने पर लगातार कई दिन बैठने का जब कोई असर नहीं हुआ तो आजाद मजदूर एकता संद्घ ने एक सामूहिक बैनर तले मजदूरों की मांगों के समर्थन में तमाम तरह की जनवादी लोकतांत्रिाक और मानवतावादी ताकतों को इकठ्ठा कर संसद के सामने एक बुलंद आवाज के रूप में सरकार को चेताने के लिए प्रचंड प्रदर्शन रखा। इसी प्रदर्शन में अन्य कार्यकर्ताओं के साथ प्रज्ञा भी अपनी सामाजिक संस्था दलित सरोकार की तरपफ से आई थी। वह आजाद मजदूर एकता संद्घ द्वारा मजदूरों के हकों के लिए लड़ी जा रही लड़ाई से पूर्ण सहमत थी।
उसका मानना था कि गांव के खेत-खलिहानों से लेकर शहर की मिलों और पफैक्ट्रियों आदि में काम कर रहे कुल मजदूरों में नब्बे प्रतिशत मजदूर तो दलित वर्ग के ही हैं। इनका इतनी बडी संख्या में मजदूर बनने और गांव छोड़ देने की सबसे बड़ी वजह उनका भूमिहीन होना है। मात्रा दलित होने के कारण ही वे गांवों में रात-दिन जातीय अपमान झेलते रहे। ऊंची जाति के लोगों के यहां बंधुआ मजदूरी करते- करते अपनी इंसानी गरिमा खोकर पशुओं की तरह लुटते-पिटते मार खाते रहे और अंततः एक दिन जाति आधारित सामाजिक आर्थिक उत्पीड़न नहीं सह पाने की स्थिति में गांवों से पलायन कर पफैक्ट्रियों में मजदूर बनके खप गए। एक नरक से निकल कर दूसरे नरक में आ गिरे जहां न उनका कोई भविष्य है, न उनके बच्चों का। दलित का बच्चे दलित और मजदूर के बच्चे मजदूर। पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा अन्याय। शहरों की गंदी झुग्गी बस्तियों में कीड़े- मकोड़ों की तरह जीने को मजबूर। इंसानी गरिमा से कोसों दूर। प्रज्ञा शिद्दत से महसूस करती कि जातीय कलंक से छुटकारे के साथ-साथ आज दलित वर्ग को आर्थिक समानता के लिए भी बराबरी से लड़ना चाहिए।
यही सोच उसे इस प्रदर्शन में खींच लाई थी। वह रोज इस धरने में दो-तीन द्घंटे बैठती थी। यहीं उसकी मुलाकात समर से हुई और मुलाकातें प्यार से होती हुई जल्दी ही शादी में बदल गईं। शादी के दो वर्ष बड़े मजे से गुजरे। दोनों ने कई शाम दोस्तों के साथ मंडी हाउस के चायखाने पर तरह-तरह के मुद्दों पर लड़ते-झगड़ते, बहस करते हुए बिताई, उनकी शादी का भी बड़ा खास आयोजन हुआ था। न प्रज्ञा के मां-बाप आए न समर के। उनके सभी दोस्तों ने उनकी शादी में बड़ी पार्टी की थी। सबने अपने-अपने काम बांट लिए थे। एक तरपफ कुछ साथी क्रांतिकारी गानों के साथ पाश, मुक्तिबोध और धूमिल की कविता कह रहे थे, तो दूसरी तरपफ कुछ मजदूर साथी जल्दी-जल्दी रोटी बना रहे थे और कुछ उसके जिगरी दोस्त विप्लव के साथ मिल कर ढेर सारा मटन पका रहे थे। ईंटों पर बने चूल्हे को पफूंकते-पफूंकते विप्लव की आंखें लाल हो गई थीं। वह पसीने से तर-बतर था। पूरे दृश्य को याद कर प्रज्ञा को हंसी आ गई। तनाव उसके मन से कापफूर हो गया। विप्लव, उसके बचपन का दोस्त, जिसे समर भी अक्सर याद करता रहता था। आज वह सात साल बाद लौटा है। पता नहीं कहा चला गया था अचानक। यही खुशखबरी वह समर को सुनाना चाहती थी कि कल की सभा में विप्लव आया था। वह बार-बार समर के बारे में पूछ रहा था। पर समर कुछ सुनने को तैयार नहीं था। उसके मन में विचारों की आंधी-सी चलने लगी। रात में समर सोता हुआ, उसे बड़ा भोला लगा। वह चुपचाप उसके बगल में जाकर सो गई।
सुबह समर जल्दी ही उठ गया। कल का गुस्सा अभी तक उसके चेहरे से झलक रहा था। प्रज्ञा अभी तक सो रही थी। उसने एक नजर प्रज्ञा को देखा और मुंह बिचका कर मन में सोचा कि कितने चैन से सो रही है। कल मेरे भूखे रहने की इसे कोई चिंता नहीं है। इस द्घर में मेरी कोई कद्र ही नहीं है। वह भारी कदमों से उठा और बाथरूम में चला गया। मुंह धोकर वह रसोई में गया। यह सोच कर कि कुछ खाने को मिल जाए शायद। रात भर भूखे रहने से उसे जोर की भूख लग आई थी। तभी उसकी निगाह ढंकी प्लेटों की तरपफ गई। प्लेटों में खाना ढंका रखा था। इसका मतलब मेरे साथ-साथ प्रज्ञा ने भी खाना नहीं खाया। समर को राहत महसूस हुई। उसका मन प्रज्ञा के लिए थोड़ा नरम हो आया। मन में आया कि वह प्रज्ञा से मापफी मांग कर बात यहीं खत्म कर दे। पर तभी उसकी नजर खाने की प्लेट के पास रखे प्रज्ञा के मोबाइल पर गई, जिस पर कोई संदेश फ्रलैश कर रहा था। उसने झट से संदेश को खोल कर देखा। संदेश था-
'ताजी हवा में पफूलों की महक हो,
पहली किरण में चिड़ियों की चहक हो,
जब भी खोलो तुम अपनी पलकें,
उन पलकों में बस खुशियों की झलक हो।
गुड मार्निंग मैडम...।'
भेजने वाले का नाम नहीं था। समर के मन में शक का कीड़ा कुलबुला उठा। उसे प्रज्ञा के साथ हुई रात की लड़ाई के सारे दृश्य एक-एक करके याद आने लगे। वह सोचने लगा कि कल मेरे द्वारा लगाए झूठे आरोप सुन कर भी वह परेशान न होकर इतनी खुश क्यों थी। कहीं कोई चक्कर तो नहीं...। उसने मोबाइल के इनबॉक्स को जल्दी-जल्दी खोल कर देखना ही शुरू किया था कि उस नम्बर से पिफर एक और संदेश 'टंग' की आवाज के साथ आ गया-
'पुराने दिनों की खुशनुमा याद,
कर रही है पिफर वही पफरियाद,
चलो, शुरू करें पुराना संवाद,
मैं कौन हूं, पहचानो न जल्दी मेरे यार...'
दूसरा संदेश पढ़ते ही समर का शक पक्का होने लगा। उसे लगा, हो न हो, यह उसका कोई पुराना दोस्त है जिसका राज उसने आज तक उससे छिपा कर रखा हुआ है। समर ने सबसे पहले संदेश भेजने वाले का नंबर अपने मोबाइल में पफीड किया। और पिफर संदेश भेजने वाले का नंबर डायल करने लगा। एक बार, दो बार और न जाने कितनी बार। बार-बार डायल करता रहा, पर हर बार नाकाम। दूसरी तरपफ से पफोन लगातार बिजी जा रहा था। वह गुस्से में भन्ना उठा। प्रज्ञा से कैसे पूछे कि तुम्हारे मोबाइल में ये किसके संदेश लगातार आ रहे हैं? समर जानना चाहता था कि संदेश भेजने वाला लड़का है कि लड़की। चूंकि वह रात को प्रज्ञा से लड़ बैठा है, इसलिए अब वह प्रज्ञा से कैसे पूछे कि ये संदेश तुम्हारे लिए कौन भेज रहा है। उसे पता है कि उसके पूछते ही प्रज्ञा पूरे द्घर में तूपफान खड़ा कर देगी। एक बार बिपफर गई तो यमदूत भी उसे आकर नहीं संभाल सकता।
उस दिन की द्घटना उसे आज तक याद है। एक बार वह प्रज्ञा के साथ
ब्लूलाइन बस से द्घर आ रहा था। बस में बहुत भीड़ थी। भीड़ का पफायदा उठाते हुए एक आदमी ने अपने पैर से प्रज्ञा के पैर को बुरी तरह दबा दिया था। प्रज्ञा ने आपत्ति जताई तो वह बदतमीजी से बोला-'अगर इतनी नाजुक परी बनती है तो अपनी गाड़ी में चला कर।' प्रज्ञा ने उसको करारा जवाब देते हुए कहा-'तू कौन होता है मुझे बताने वाला कि मैं कैसे सपफर करूं? तेरे बाप की बस है?' एक औरत से बदतमीजी से उल्टा जवाब पाकर वह भन्ना उठा। इसी भन्नाहट में वह अंट-शंट बड़बड़ाने लगा-'पता नहीं, कहां-कहां से आ जाती हैं मर्दमार।' प्रज्ञा को उसका बड़बड़ाहट में अंतिम शब्द 'मर्दमार' सुनाई दे गया। पिफर क्या था, प्रज्ञा ने उस आदमी को कॉलर पकड़ कर खींच लिया और उसके मुंह पर खींच कर दो-तीन चांटे इतनी जोर से मारे कि उसके मुंह से खून भी निकलने लगा। प्रज्ञा और उस आदमी के बीच-बचाव में उसे भी एक धक्का लग गया था। बस के यात्राी स्तब्ध खडे़ रह गए। प्रज्ञा की बहादुरी पर वह उस दिन रीझ उठा था। बस से उतरने के बाद उसने प्रज्ञा का हाथ कस कर पकड़ते हुए मुस्कुरा कर कहा-'उसे अच्छा सबक सिखाया तुमने। पिफर किसी औरत की तरपफ आंख उठा कर नहीं देखेगा।' उस दिन द्घर आकर समर ने ही खाना बना कर खिलाया। यह प्रज्ञा की बहादुरी का इनाम था।
उसका ध्यान पिफर मोबाइल की ओर चला गया। उसके दिमाग में एक आइडिया आया। क्यों न वह भेजने वाले को संदेश करके उससे ही पूछ ले कि आप कौन हैं और प्रज्ञा को कैसे जानते हैं। समर ने तुरंत मोबाइल पर प्रश्न चिन्ह के साथ तीन शब्द टाइप किए-'हू आर यू?' और उसे भेज दिये। दो-चार मिनट तक मैसेज का रिप्लाई न पाकर वह उसकी और
जानकारी पाने के लिए बेताब हो गया। वह कमरे में गया। देखा अभी तक प्रज्ञा बेपिफक्र सो रही थी। उसका हाथ प्रज्ञा की अलमारी की तरपफ बढ़ा। धीरे से अलमारी खोलते ही उसकी नजर बैग पर गई। अलमारी में प्रज्ञा का बैग रखा था। उसने पफटापफट बैग में हाथ द्घुमाया बैग में कुछ रुपए और कुछ पर्चियों के अलावा कुछ नजर नहीं आया। उसने सिर द्घुमा कर देखा उसे प्रज्ञा के चेहरे पर निश्छलता नजर आई, उसे लगा कि प्रज्ञा ऐसा कभी नहीं कर सकती। बैग और आलमारी खंगालने के बाद भी जब समर को चैन नहीं पड़ा तो पिफर उसका ध्यान मोबाइल की ओर गया। इस बार उसने संदेश के एक एक शब्द को किसी जासूस की तरह ध्यान से पढा़। शायद भेजने वाले का सुराग लग जाए। पूरे संदेश की आखिरी लाइन जब भी खोलो, वही थी-'...उन पलकों में खुशियों की झलक हो' पढ़ कर समर के मन में विचित्रा-सी कड़वाहट भर गई। वह कुढ़ कर मन ही मन
बुदबुदाया-'हां साले, तू ही उसे खुशी दे सकता है। बस हम ही हैं, जो उसे रोज खून के आंसू रुला रहे हैं।' जरूर प्रज्ञा ने उसके सामने अपने द्घर में बंद होकर बैठने के रोने रोए होंगे।
समर को विश्वास होने लगा कि हो न हो, प्रज्ञा का कोई चक्कर जरूर है। मगर चल भी रहा हो तो मुझे कैसे पता चलेगा। मैं द्घर में थोड़े ही रहता हूं। यानी मेरे दफ्रतर जाने के बाद यही सब होता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि मीटिंगों के बहाने उससे मिलती हो। अब उसे प्रज्ञा पर गुस्सा आने लगा। उसे लगा कि वह प्रज्ञा को अभी झिंझोड़ कर उठा दे और पूछे कि ये सब कब से चल रहा है। पर उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी। अगर यह सब झूठ निकला तो बेकार में उसके सामने
बेइज्जती हो जाएगी। और अगर सच निकला तो...! आखिर प्रज्ञा मेरे साथ ऐसा क्यों करेगी। मैंने हमेशा उसे अपनी दोस्त की तरह माना है। पति होने के नाते उस पर कभी अपने विचार नहीं लादे। मेरे द्घर की सारी औरतें मां से लेकर भाइयों की बीवियां तक सिर ढंक कर रहती हैं। अभी भी छत की बालकनी तक में मेरी बहनों को अकेले खडे़ होने की मनाही है। ऐसे परिवार में होते हुए भी मैंने शादी के पहले दिन ही प्रज्ञा से स्पष्ट कह दिया था कि तुम्हारी मर्जी है, बड़ों के सामने सिर ढंको या मत ढंको। परिवार की औरतों के द्घरेलू मामले में निर्णय लेने के अधिकार मैंने तुम्हे सौंप दिए हैं। एक तरह से देखा जाए तो मैंने उसे द्घर और बाहर की औरतों से ज्यादा आजादी दी। मैं द्घर का पूरा खर्चा उसके हाथ में देता हूं। दो-दो बच्चे, रहने लायक द्घर, सापफ-सुथरा माहौल-सब मैंने उसे दिए हैं। एक औरत को इससे ज्यादा और क्या चाहिए। अच्छा कमाता हूं, देखने में कइयों से अच्छा हूं। मैं उसे कभी किसी औरत या मर्द से मिलने से भी नहीं रोकता। हां, अगर मर्दों से मिलते वक्त मैं उनकी औरतों को लेकर कुछ कमियां बताते हुए प्रज्ञा को उनसे सावधान रहने के लिए कहता हूं तो इसमें बुरा क्या है। लेकिन प्रज्ञा मेरी पूरी बात सुने बिना ही लड़ने लगती है। समर का मन किया कि वह प्रज्ञा को उठा कर संदेश दिखाए और कहे कि देखो, मैं तुम्हे केवल इस तरह के मर्दों से सावधान रहने को कहता हूं। तुम पर मेरा अपने प्रति पजेसिव का आरोप लगाना कितना मनगढ़ंत है।
तभी उसकी निगाह सोती हुई प्रज्ञा पर गई। बड़ी सुंदर लग रही थी वह। नींद में मुस्कुरा रही थी। जरूर कोई सपना देखा होगा। मुस्कुराते हुए उसके अधखुले होठ देख कर समर के मन में आया कि वह प्रज्ञा को बाहों में भर ले और उसके अधखुले होठों पर चुंबन की झड़ी लगा दे और कहे तुम केवल मेरी हो। अगर तुम्हारी तरपफ किसी ने आंख उठा कर देखा भी, तो उसकी आंखें बाहर निकाल लूंगा। समर के मन में प्रतिहिंसा का भाव जाग उठा। उसका ध्यान प्रज्ञा से हट कर पिफर संदेश भेजने वाले की ओर चला गया। वह पिफर संदेश भेजने वाले का मान-मर्दन करने के लिए मन ही मन योजना बनाने लगा। एक बार मन में आया कि वह उसकी शिकायत पुलिस में कर दे। पर दूसरे ही पल आशंका जागी कि अगर कोई जान-पहचान का या करीबी निकला तो? चलो एक बार और कोशिश करके देख लेता हूं। यह सोच कर उसने पिफर नंबर मिलाया। शायद यह पच्चीसवीं कॉल थी। पफोन की द्घंटी जा रही थी, पर कोई उधर से उठा नहीं रहा था।
तभी दरवाजे पर लगी कॉलबेल जोर से चिंद्घाड़ उठी। समर का ध्यान बरबस द्घड़ी पर गया। देखा सुबह के साढ़े पांच बजे थे। आश्चर्य हुआ। इतनी सुबह कौन आ गया। दरवाजा खोलते ही देखा, सामने कोट-पैंट-टाई में विप्लव खड़ा था। लड़कियों में अपनी खूबसूरत पर्सनालिटी को लेकर चर्चित विप्लव एकदम बदला-बदला-सा लग रहा था। पतले-दुबले विप्लव की जगह अब मोटे थुलथुल विप्लव ने ले ली थी। आंखों पर कीमती चश्मा, कलाई पर महंगी द्घड़ी। समर विप्लव को आश्चर्य से मुंह खोले एकटक देख रहा था। तभी विप्लव ने समर के पेट पर प्यारा और हल्का-सा द्घूंसा जमाते हुए कहा-'साले, दरवाजे से तो हट, अंदर नहीं आने देगा।' 'अरे यार, क्यों नहीं'-समर ने अचकचा कर रास्ता देते हुए कहा। आश्चर्यचकित होते हुए समर ने कहा-'यार, इतनी सुबह! न पफोन न कोई खबर?'
'अभी तक तू मुझे चौबीस पफोन कर चुका है और अभी तेरा पच्चीसवां पफोन दरवाजे पर था, तब आया। सोच रहा होगा कि क्यों नहीं मैंने तेरा पफोन उठाया। मैंने भी सोचा कि बच्चू को दिमाग के द्घोडे़ दौड़ाने दो। देखता हूं कि कुछ पूंछ पकड़ पाता है या नहीं। पूंछ क्या द्घोडे़ की मूंछ का बाल भी नहीं छू पाया न? प्रज्ञा को संदेश मैंने ही भेजा था, तुझे जलाने के लिए। देख कर लग ही रहा है साले कि जल कर कोयला हो गया है तू! क्यों ठीक कहा ना मैंने?' समर ने सकुचाते हुए कहा-'नहीं यार, मैं तो केवल जानना चाहता था कि ये संदेश भेजने वाला कोई मर्द है या औरत।' 'अच्छा, तो यह जानने के लिए इतने पफोन? यार, तू तो बिल्कुल नहीं बदला।' यह कहते हुए विप्लव ने जोर का ठहाका लगाया। समर ने झेंप मिटाते हुए कहा-'यार, लेकिन तू तो बहुत बदल गया है। क्या ठाठ हैं तेरे। कहां काम करता है?'
'नवजीवन पफूड सप्लायर्स कंपनी का एमडी हूं मैं।' विप्लव ने सोपफे पर और चौडे़ होकर बैठते हुए कहा। जैसे वह समर का द्घर न होकर उसकी कंपनी का दफ्रतर हो।
'अच्छा! कंपनी क्या काम करती है?' समर ने उत्सुकुता से पूछा।
'कंपनी क्या काम करेगी यार। जो मैं चाहूंगा, वही करेगी। एक तरह से मैंने ही उसे पांव पर खड़ा किया है। पहले कंपनी रेडीमेड क्लॉथ सप्लाई करती थी। पर मेरे कहने पर कंपनी के मालिक ने उसकी एक सिस्टर ब्रांच बनाई है जो अब किसानों से सीधे और सस्ते रेट पर पफल खरीद कर उनका जूस, जैम और पल्प बना कर विदेश भेजती है। अभी हम एक और कंपनी खोलने जा रहे हैं जो गांवों और शहरों में खाली पड़ी जमीन पर सरकार और अधिकारियों की मदद से
लोगों को सस्ते दर पर द्घर बना कर देगी। आज मैं उसी कंपनी के एजेंट रखने के इंटरव्यू लेने आया हूं। 'ताज' में ठहरा हूं। और समर, तुम क्या कर रहे हो?' समर कुछ बोल पाता, उससे पहले ही विप्लव बोल उठा- 'हां, कल प्रज्ञा से तुम्हारे बारे में खूब बातें हुईं। उसी ने बताया कि तुम बीमा कंपनी में सुपरवाइजरी करते हो। यू नो समर, साथ-साथ पढ़ते, काम करते हुए हम सबने समाज बदलने के जो सपने देखे थे, कभी-कभी मुझे लगता है कि मैं ही अकेला उनको पूरा करने में लगा हुआ हूं बाकी सब तुम्हारे जैसे ही अपनी रोजी-रोटी के चक्कर में लगे हुए हैं। मैंने समाज बदलाव के तरीकों की बनी बनाई द्घिसी-पिटी ट्रेडीशन को तोड़ा है, मैं एकदम अलग व अपने तरीके से ग्रासरूट पर काम कर रहा हूँ। याद है ना सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता 'लीक पर वे चले जिनके चरण दुर्बल और हारे हैं, हमें तो अपनी यात्रााओं से बने अनिर्मित पंथ प्यारे हैं।' मैं संतुष्ट हूँ कि मैं कहीं भी रहकर कुछ भी करूं पर अपने सामाजिक दायित्व पूरे निबाह रहा हूँ।'
अभी तक समर विप्लव की बातें ध्यान से सुन रहा था। समर को विप्लव एक बडे़ आदमी के रूप में दिख रहा था। पर उसकी जिज्ञासा इस बात में थी कि वह एकाएक कहां चला गया था। पर अपनी आलोचना सुन कर विप्लव की बातों से उसे अरुचि-सी होने लगी। वह बात को बीच में काटते हुए बोला-'पर तू अचानक कहां चला गया था बिना बताए?' विप्लव ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा-'तेरी शादी के बाद मां का पफोन आया कि वे बहुत बीमार हैं। मैं सुन कर सीधा द्घर चला गया। खैर, वे शरीर से कम मन से ज्यादा बीमार थीं। मुझे और मेरे काम को लेकर चिंतित रहती थीं। तुम तो सारे कारण जानते ही हो जिनके वजह से शुरू से ही मेरा मां और बाबा से झगड़ा रहा। वे मुझे दिल्ली भी पढ़ने के लिए नहीं आने देना चाहते थे। पर उस वक्त मैं नासमझ और भावुक था। जिद पर अड़ गया तो वे मना नहीं कर सके। आखिर इकलौता बेटा जो ठहरा। दिल्ली में आकर पार्टी में भी जुड़ा। इससे भी उन्हें बहुत दुख हुआ था। उस समय भी मैंने उनकी परवाह नहीं की और अपना काम करता रहा। पर उनको बीमार देख मुझे बहुत बुरा लगा। लगा कि मैं कब तक उनका विरोध करता रहूंगा। न वे ही सुख से मर पाएंगे और न मैं सुख से जी पाऊंगा। इसलिए मैंने उनका कहना मान कर द्घर का
बिजनेस संभाल लिया। उनकी मर्जी से शादी कर ली? चल तुझे अपनी पफैमिली से मिलवाता हूं।' विप्लव ने जेब से पफोन निकाला। समर का ध्यान बरबस उसके महँगे पफोन की तरपफ चला गया। उसने
उत्सुकता से पूछा-'ब्लैकबैरी है?' 'नहीं यार, एप्पल का है। आई पफोन पफोर है। लेटेस्ट है। टच-स्क्रीन है। कल ही खरीदा है। विप्लव ने प्यार से मोबाइल पर उंगलियां द्घुमानी शुरू कीं। समर को लगा कि वह पफोटो कम अपना मोबाइल अधिक दिखा रहा है। पफोटो की जगह उसने द्घर का वीडियो दिखाया। आलीशान द्घर, बगीचा, स्वीमिंग पूल, दो बड़े-बडे़ कुत्ते पकड़े खड़ा गंवई सा लड़का ...।
समर ने विप्लव के सामने अपने को कुछ दबा-दबा-सा महसूस किया। विप्लव का चेहरा खुशी से दमक रहा था। समर के चेहरे का रंग बदलते देख उसने समर से चुटकी लेते हुए कहा-'तेरी भाभी का पफोटो दिखाता हूं। तू उसे देख कर गश खा जाएगा।' 'क्या बहुत खूबसूरत हैं?' समर ने रुचि दिखाते हुए कहा। 'अभी दिखाता हूं यार। इतना अधीर क्यों होता है।' विप्लव स्क्रीन को टच करके एक पफोटो ऊपर ले आया-'देख, ये है तेरी भाभी सविता।' सविता की पफोटो देख समर के मुंह से निकला-'अरे, तो तुमने सविता से शादी की है। हाऊ कम? तुम तो उससे बहुत चिढ़ते थे, उसे देख कर मुंह बिचका लेते थे! उसे द्घंमडी, पूंजीपति की औलाद और न जाने क्या-क्या सबके सामने कह देते थे।'
'वो तो यार बचपना था। पर हकीकत में मैं शायद उसे पसंद करता था।'-विप्लव ने सपफाई दी।
'पर यार, ये कैसे संभव है? तू और सविता एक साथ?' समर को अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था।
'सब कुछ संभव है मेरे यार। जब मैं गांव लौटा तो हमारा द्घरेलू बिजनेस भी मां की तरह बीमार-सा ही पड़ा था। उसे पैसे और नए आइडिया की जरूरत थी। आइडिया की मेरे पास कभी कमी नहीं थी, यह तो तू अच्छी तरह जानता ही है। पर पैसे कहां से आए। उसी समय सविता का मेरे लिए रिश्ता आया। न तो सविता को कोई मुझसे प्रॉब्लम थी और न ही मुझे सविता से। सो, हम दोनों ने तुरंत हां कर दी।' विप्लव ने कहा।
समर ने पूछा-'अब सविता क्या कर रही है?'
'कुछ खास नहीं। बस वैसे ही। बेटी और द्घर की देखभाल के बाद जो समय मिलता है, अपनी सहेलियों के साथ किटी पार्टी आदि में चली जाती है। कभी-कभी समाज सेवा कर लेती है। हमारी कंपनी जिन किसानों के यहां से ेश पफल खरीदती है, सविता उन किसानों के जानवरों की हरेक तरह की मदद के लिए एक हेल्पलाइन चला रही है। उसने जानवरों के लिए प्रसूति-गृह खोला है। आज शाम पांच बजे उसके 'मेटरनिटी होम पफोर एनिमल्स' का उद्द्घाटन है, जिसमें पच्चीस प्रतिशत सड़क पर बच्चा जनने वाले बेसहारा जानवरों के लिए बेड आरक्षित रखे गए हैं। बेड रिजर्व का आइडिया मेरा ही है।' विप्लव बता रहा था और जानवरों का प्रसूति-गृह सुनकर समर को कुछ अटपटा-सा लग रहा था।
विप्लव ने आगे कहा-'यार, सविता से जानवरों का दुख बर्दाश्त नहीं होता। बड़ी संवेदनशील है वह जानवरों के लिए। एक बार वह मेरे साथ कहीं जा रही थी तो सड़क पर एक गाय सबके सामने बच्चा पैदा कर रही थी। गाय के चारों तरपफ भीड़ थी। सविता इस नजारे को देखकर दो दिन रोती रही। उसको परेशान देख मैंने उसे सलाह दी कि तुम ऐसे जानवरों के लिए कुछ शुरू कर सकती हो। बस उसी दिन से वह अपना 'ऐनिमल ड्रीम' चला रही है। ऐनिमल ड्रीम में अभी केवल 'ऐनिमल हेल्पलाइन', 'प्रसूति-गृह' पर ही काम हो पाया है। आगे सविता के पास दो और नये यूनिक प्रोजेक्ट हैं, जिसमें पहला काम 'बेबी क्रैच' की तर्ज पर 'एनिमल ज्रैच' खुलवाना व दूसरा भारत में 'डॉग कल्चर' पर रिसर्च करवाना। हम आजकल में ही भारत के प्रत्येक सरकारी, गैर सरकारी दफ्रतरों में 'ऐनिमल क्रैच' खोलने का मांग-पत्रा भारत सरकार के श्रम मंत्राालय को भेजने वाले हैं। सविता और उनके ैंड्स को लगता है कि जब लोग अपने-अपने काम पर चले जाते हैं तो उनके पीछे उनके पालतू एनिमल एकदम अकेले और असुरक्षित हो जाते हैं। नौकर उनके लिए रखा गया खाना तक खा जाते हैं, साथ ही उनके साथ जानवरों से भी बुरा बर्ताव करते हैं। इसलिए हम चाहते हैं कि जिस प्रकार दफ्रतरों में बच्चों की देखभाल के लिए 'क्रैच' होता है उसी प्रकार हरेक दफ्रतर में ऐनिमल्स की देखभाल के लिए 'एनिमल ज्रैच' भी होना चाहिए। इस ज्रैच का पूरा डिमांड चार्टर मैंने ही बनाया है। सविता की ही मेहनत है कि एनिमल राईट पर काम करने वाले ग्रुपों में अब 'एनिमल ड्रीम' कापफी पॉपुलर हो गया है। कई सरकारी आला अपफसरों से लेकर नेताओं तक ने उसमें अपनी गहरी
दिलचस्पी दिखाई है। उनकी कृपा से 'ऐनिमल ड्रीम' को कापफी पफंड भी मिलने लगा है। हमारे दूसरे काम भी कापफी इन्टे्रस्टिंग हैं। 'ऐनिमल ड्रीम' के कार्यकारी सदस्यों का मानना है कि पप्पी से लेकर डॉग कल्चर पर हमारे ग्रुप द्वारा कार्रवाई जाने वाली रिसर्च इंसानों की दुनिया में तहलका मचा देगी। उस रिसर्च में हम मनुष्यों द्वारा डॉग्स की अस्मिताओं पर उठाए गए कुछ शाश्वत सवालों की चर्चा करेंगे। इस रिसर्च ग्रंथ में उनकी मनुष्य के प्रति वपफ़ादारी से लेकर उनके शौर्यपूर्ण इतिहास के साथ उनके मानवजनित
मनोवैज्ञानिक व्यवहार का बारीकी से अध्ययन किया जाएगा जैसे कि वे किस स्थिति में कितने एंगल पर क्यों और किस प्रकार अपनी दुम हिलाते हैं। उनके अंदर मौजूद इस आसाधारण कला के साथ उनकी अस्मिता पर हमले करने के लिए बने द्घृणित मुहावरे, पहेलियां, लोकोक्ति, किस्से-कहानियां व चुटकुलों पर पूरा एक अध्याय होगा। उनके भौंकने के अंदाज में आए परिवर्तन मसलन करारेपन से लेकर कुईकुयाने तक का भी वैज्ञानिक अध्ययन करेंगे। हमारी सविता मैडम अपने 'एनिमल ड्रीम' में खुश हैं और मैं अपनी नौकरी में। दोनों का बढ़िया चल रहा है।'
समर विप्लव से बातें करते-करते उसके व्यक्तित्व को भी गहराई से ऑब्जर्ब कर रहा था। उसने विप्लव को भेदी निगाह से देख कर कहा-'यार विप्लव, तू बिल्कुल बदल गया। कहां खद्दर के कुर्तों वाला विप्लव और कहां ये नवजीवन पफूड कंपनी के साथ-साथ दो-दो कंपनियों का एमडी।'
'पर तू बिल्कुल नहीं बदला। तू और प्रज्ञा जैसे थे वैसे ही रहे। 'डी-क्लास' और 'डी-कास्ट' होने की बात मैं ही ज्यादा करता था, पर असल में तुमने वाकई अपने आप को 'डी क्लास' और 'डी-कास्ट' कर लिया। विप्लव ने उदासी से लंबी सांस भरते हुए कहा।
तभी समर को कुछ याद आया-'अरे यार, तुझे नत्थू याद है, जिसने हमारी शादी में तेरे साथ बाल्टी भर मटन पकाया था? वही हमारे ग्रुप का मजदूर लीडर, जिसने पफैक्ट्री की हड़ताल में खूब डंडे खाए थे। और नौकरी से निकाल दिया गया था। तब से लेकर आज तक वह ऐसे ही भटक रहा है। प्रज्ञा बता रही थी कि उसकी बीवी आजकल बहुत बीमार चल रही है। प्रज्ञा ने उसके इलाज के लिए कुछ चंदा जमा किया है। आज वह दोपहर को द्घर आने वाला है। अगर तू थोड़ी देर रुक जाए तो उससे भी मिलता जा। वह जब भी यहां आता है, तुझे बहुत याद करता है।'
'नहीं यार, मेरा शेड्यूल बहुत बिजी है। मैं तुझसे ही बड़ी मुश्किल से मिलने का टाइम निकाल पाया हूं। इंटरव्यू के बाद एक बजे की फ्रलाइट से वापस जाना है। सविता के हॉस्पिटल का उद्द्घाटन है। कई जाने-माने नेता-अभिनेता आमंत्रिात हैं। मेरे न होने से वह डिप्रेस हो जाएगी। चल यार, कापफी देर हो गई। अब मैं निकलता हूं।' विप्लव ने मजबूरी जताई।
'अरे, मैं तो तेरे साथ बातों में इतना खो गया कि तुझे चाय-पानी सब पूछना भूल गया।' समर ने द्घड़ी देखी। बातों-बातों में चालीस मिनट किस तरह बीत गए, पता ही नहीं चला। वह चाय बनाने किचन में द्घुसा। पीछे-पीछे विप्लव भी चला आया। छोटी-सी प्यारी किचन केवल दो जनों के खडे़ होने लायक भर जगह। सापफ-सुथरे प्यार से संवारे दाल-मसालों से भरे डिब्बे-डिब्बियां। समर के साथ खडे़ होने की निकटता विप्लव को पुराने दिनों की याद ताजा कर गई। विप्लव भावुक स्वर में बोला-'यार, एक बात कहूं। तू सच में बहुत लक्की है। हमेशा तेरी सारी इच्छाएं पूरी हुई हैं। सुखी परिवार है तेरा।'
चाय पीकर विप्लव वापस चला गया। पर विप्लव के शब्द उसके दिलो-दिमाग में बार-बार कौंध रहे थे। ऊपर से खुश दिखने वाला, पैसों के ढेर पर बैठा, कंपनी के पॉवर को एन्जॉय करता विप्लव क्या अंदर से खुश नहीं है? क्यों? परिवार, पॉवर, पैसा और पॉपुलरिटी-चारों के अलावा एक इंसान को इससे अधिक क्या चाहिए? क्या खुद समर अपने जीवन में खुश है? आखिर नाखुश होने के कारण क्या हैं? रात को बेहद छोटी-सी बात, प्रज्ञा की अनुपस्थिति को लेकर वह इतना अति भावुक होकर क्यों सोचने लगा। मनचाहा जीवन-साथी, बच्चे, द्घर, नौकरी- सब कुछ तो है समर के पास। पर परिवार में ऐसा क्या है जो उसे खुशी देने के बजाय उसके दिल को चोट पहुंचाता है? प्रज्ञा के काम करने से उसे कोई विरोध नहीं है। वह द्घर में बैठ जाए, उसने ऐसा कभी नहीं चाहा? पर पिफर भी वह उसके प्रति अक्सर चिड़चिड़ा क्यों हो जाता है? उसे बाकी जीवन से निराशा क्यों होने लगती है? शादी से पहले जब दोनों दोस्त थे, तब उसे कभी निराशा महसूस तक नहीं हुई। दोनों ने एक दूसरे के साथ सार्वजनिक जीवन से लेकर नितांत व्यक्तिगत पल हंसी-खुशी गुजारे। शादी लोग एक-दूसरे के साथ सहयोग से जीने के लिए करते हैं। पर क्या वास्तव में एक दूसरे का सहयोग मिल जाना ही कापफी है। अगर मिल भी जाए तो हमें और अधिक सहयोग की चाह क्यों होने लगती है। सहयोग, पूर्ण समर्पण, गुलामी से भी ज्यादा की इच्छा! क्या इंसानी पिफतरत यही है कि सब एक दूसरे को अपनी-अपनी उंगलियों पर अपने अनुसार नचाएं और पिफर एक दूसरे के प्रति सच्चे प्यार का दम भी भरें।
सोचते-सोचते समर ने खुद को कठद्घरे में खड़ा पाया। उसके मन में अपने-आप सवालों की बरसात होनी लगी। उसे प्रज्ञा पर गुस्सा क्यों आया? क्या इसलिए कि प्रज्ञा द्घर पर नहीं थी? उसने प्रज्ञा में क्या देख कर शादी की थी? उसकी उन्मुक्त बौ(किता, उसकी ईमानदारी, सच्चाई... वह इन गुणों की बहुत कद्र करता था। अब उसे इन्हीं गुणों से क्यों चिढ़ है? शादी के बाद उसने प्रज्ञा के लिए किया ही क्या, सिवाय उसे द्घर में बांधने के? कितनी बार उसके साथ बाहर जाता है? कितनी बार उसके मन को समझने की कोशिश की है?
आसपास की चुप्पी में गूंज रहे ये सवाल एक-एक करके दीवारों से टकरा के वापस आ रहे थे और समर को द्घायल कर रहे थे। सोपफे में धंसा समर छत को एकटक निहार रहा था और उसकी आंखों से ग्लानि बहने लगी थी।
बाहर कमरे के मोटे परदों से लड़ कर धूप पूरी ताकत के साथ अंदर आने की कोशिश में थी।

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